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सिखवर ट।
तह भइचकेण मया
सिद्धवर कूट । __ छक्खंडं साहियं सम्मं ॥
(ले० श्रीयुत भगवन्त गणपति गोइलीय।) इससे पाठक समझ सकते हैं कि गोम्मटसार कितना अधिक संग्रह ग्रन्थ सिद्धवरकी ही असीम पुनीतता,है, जैसा कि हमने पहले भी एक बार पातकीको खींच ले आई इधर; सूचित किया है। प्रस्तु; ऐसी हालतमें मैं नहीं पाया न मेरा दोष है, . कनकनन्दीकी त्रिभंगीके नामसे जो पत्र- . हे अचल ! हे शैल ! हे सारंगधर! , संख्या (७३) और श्लोक संख्या (१४००) सूचीमें दी है, वह गलत है । कनकनन्दीकी फिर भला क्यों मौन है धारण किया ? यह त्रिभंगी भी माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला- सोचते हो क्या कि हूँ मैं पातकी ? में छप जानी चाहिये, जिससे मूल ग्रन्थ हाय तुम ही सोचने जब यो लगेअपने असली रूपमें विद्वानोंके सामने
मन तो कमी कलिमें रही किस बातकी ? रहे और गोम्मटसारके अध्ययन करनेचालोको भी छूटे हुए पोका सम्बन्ध 'मौनकी कुछ दूसरी ही बात है, मिलानेसे कुछ विशेष अनुभव हो सके। गिरि ! न तुम त्यों सोचते होगे अरे;
(क्रमशः) याद क्या तो पूर्व दिन हैं भा रहे- .
गर्व मिश्रित सौख्य श्री आशा भरे। जब कि मुनिगण ठौर ठौर विराजके,
___या खड़े हो योग थे करते रहे। करते हैं।
और फिर उपदेश दे चिरसुख भरे, ..
विश्वके विकराल दुख हरते रहे। (भीयुत भगवन्त गणपति गोइलीय।)
तो उन्हींके विरहमें या ध्यानमेंत्याग सदा तुष धान्य समान .
महा चिरसत्य गहा करते हैं। इस तरह एकान्तमें एकाग्र होकोई सुनो न सुनो हम सन्तत .
ध्यान क्या तुम कर रहे अानन्दसे ? . ही वह सत्य कहा करते हैं। धन्य गिरिवर सिद्धिवर! तुम धन्य हो। दोष नहीं, फिर भी हँसके
सबकी फटकार सहा करते हैं। या कि उनकी स्वार्थपरता पर तुम्हें.. जातिहितैषितामें दिन रात
__ हे निराश्रित त्यक्त गिरि ! कुछ खेद है? लगे बिन स्वार्थ रहा करते हैं। तो विचारों नित्य होता वृक्षका
विहग दलसे उषामें विच्छेद है।
पर विटप तो नित्य हँसता खेलता, ..
और हर हर गीत गाता सर्वदा; चन्द्रिकाके साथ करता मोद है, हैन होता मन दुखमें एकदा ।
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