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हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः ।
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पन्द्रहवाँ भाग।
अंक ३-४
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पौष, माघ २४४७ ३ जनवरी, फरवरी १९२१
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न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी । बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी 'हितैषी' । उपासना-तत्त्व ।
पड़ी रहती हैं; वे उनसे ही अपना मस्तक
रगड़ा करते और उन्हें प्रणामादिक किया [ उत्तरार्द्ध ।
करते । पर ऐसा नहीं है । मूर्तिके सहारेमूर्तिपूजा।
से परमात्माको ही पूजा, भक्ति, उपासना
और आराधना की जाती है। मूर्तिके परमात्मा अपनी जीवन्मुक्तावस्था- द्वारा मूर्तिमानकी उपासनाका नाम ही । अर्थात् अर्हन्त अवस्थामें सदा और सर्वत्र मूर्तिपूजा है। इसी लिए इस मूर्तिपूजाके विद्यमान नहीं रहता, इस कारण परमा- देवपूजा, देवाराधना, जिनपूजन, देवार्चन, स्माके स्मरणार्थ और परमात्माके प्रति भगवत्पर्युपासन, जिनार्चा इत्यादि नाम आदरसत्काररूप प्रवर्त्तनेके पालम्बन कहे जाते हैं और इसी लिए इस पूजनको स्वरूप उसकी अर्हन्त अवस्थाकी मूति साक्षात् जिनदेवके पूजनतुल्य वर्णन किया बनाई जाती है। वह मूर्ति परमात्माके है। यथा :वीतरागता, शान्तता और ध्यानमुद्राआदि गुणोंका प्रतिबिम्ब होती है। उसमें स्थापना
"भक्त्याऽहत्प्रतिमा पूज्या निक्षेपसे परमात्माकी प्रतिष्ठा की जाती कृत्रिमाकृत्रिमा सदा । है। उसके पूजनेका भी समस्त वही उद्देश्य __ यतस्तद्गुणसंकल्याहै जो पहले (पूर्वार्ध) वर्णन किया गया प्रत्यक्षं पूजितो जिनः ॥. है, क्योंकि मूर्तिकी पूजासे किसी धातु --धर्मसंग्रहश्रावकाचार अ०९ श्लो० ४२॥ पाषाणका पूजना अभिप्रेत (इष्ट ) नहीं । है। ऐसा होता तो गृहस्थों के घरों में सैंकड़ों उर्दू के एक कवि शेख साहबने भी इस बाट बटेहड़े आदि चीजें इसी किस्मकी सम्बन्धमें अच्छा कहा है :
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