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जैनहितैषी।
[ भाग १५ . उसमें एक खुदाईका जलवा है वरनाऐ शेख! तथा पापोंकी निवृत्तिपूर्वक अपने आत्मसिजदा करेसे फायदा पत्थरके सामने ? स्वरूपकी प्राप्तिमें अग्रसर होते हैं। अर्थात्-परमात्माकी उस मूर्तिमें
जब कोई चित्रकार चित्र खीचनेका
__ अभ्यास करता है तब वह सबसे प्रथम खुदाईका जलवा-परमात्माका प्रकाश
सुगम और सादे चित्रोंपरसे, उनको और ईश्वरका भाव-मौजूद है जिसकी
देख देखकर, अपना चित्र खींचनेका वजहसे उसे सिजदा-प्रणामादिक
अभ्यास बढ़ाता है; एकदम किसी कठिन, किया जाता है; अन्यथा, पत्थरके सामने
गहन और गम्भीर चित्रको वह नहीं बना सिजदा करनेसे कोई लाभ नहीं था।
सकता । जब उसका अभ्यास बढ़ जाता भावार्थ, परमात्माकी मूर्तिको जो प्रणा
है, तब कठिन, गहन और रङ्गीन चित्रोंको मादिक किया जाता है वह वास्तव में पर
भी सुन्दरताके साथ बनाने लगता है मात्माको-परमात्माके गुणोंको ही
और छोटे चित्रको बड़ा और बड़ेको छोटा प्रणामादिक करना है, धातु पाषाणको
भी करने लगता है। अागे जब अभ्यास प्रणामादिक करना नहीं है। और इसलिए
करते करते वह चित्रविद्यामें पूरी तौरसे उसमें लाभ ज़रूर है। जैन-दृष्टिसे खुदाई
निपुण और निष्णात हो जाता है, तब वह का वह जलवा परमात्माके परम वीत
- चलती, दौड़ती, भागती वस्तुओका भी रागता और शान्ततादि गुणों का भाव है। जो जैनियों की मूर्तियों में साफ़ तौरसे खींचकर रख देता है और चित्र नायकको
चित्र बड़ी सफ़ाई के साथ बातकी बातमें झलकता और सर्वत्र पाया जाता है। परमात्माके उन गुणोंको लक्ष्य करके ही
न देखकर, केवल व्यवस्था और हाल ही
मालूम करके उसका साक्षात् जीता जैनियोंके यहाँ मूर्तिकी उपासना की
जागता चित्र भी अंकित कर देता है। इसी जाती है।
प्रकार यह संसारी जीव भी एकदम ... परमात्माकी इस परम शान्त और परमात्मस्वरूपका ध्यान नहीं कर सकता; वीतराग मूर्तिके पूजनमें एक बड़ी भारी अर्थात्, परमात्माका फोटो अपने हृदयखूबी और महत्वकी बात यह है कि जो पर नहीं खींच सकता; वह परमात्माकी संसारी जीव संसारके मायाजाल और परम वीतराग और शान्त मूर्ति परसे ही गृहस्थीके प्रपंचमें अधिक फंसे हुए हैं, आपने अभ्यासको बढ़ाता है । मूर्तिके जिनके चित्त अति चंचल हैं और जिनका निरन्तर दर्शनादि अभ्याससे जब उस
आत्मा इतना बलाढ्य नहीं है कि जो मूर्तिकी वीतराग छबि और ध्यानमुद्रासे केवल शास्त्रों में परमात्माका वर्णन सुन. वह परिचित हो जाता है, तब शनैः शनैः कर एकदम बिना किसी नकशेके परमा- एकान्तमें बैठकर उस मूर्तिका फोटो अपने स्मस्वरूपका नकशा (चित्र) अपने हृदयपर हृदयमें खींचने लगता है और फिर कुछ खींच सके या परमात्म-स्वरूपका ध्यान देरतक उसको स्थिर रखनेके लिये भी कर सके, वे भी उस मूर्तिके द्वारा पर- समर्थ होने लगता है। ऐसा करने पर मात्म-स्वरूपका कुछ ध्यान कर सके, वे उसका मनोबल और प्रात्मबल बढ़ जाता भी उस मूर्ति के द्वारा परमात्मस्वरूपका है और फिर वह इस योग्य हो जाता है कुछ भ्यान और चिन्तवन करने में समर्थ कि उस मूर्तिके मूर्तिमान श्रीअर्हन्तदेवका हो जाते हैं और उसीसे आगामी दुःखों समवसरणादि विभूति सहित साक्षात्
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