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अङ्क ३-४ ] .
उपासना-तत्त्व। चित्र भी अपने हृदयमें खींचने लगता है। यह तो हुई मूर्ति विशेष और जैनियों के इस प्रकारके ध्यानका नाम 'रूपस्थध्यान' मूर्तिपूजा-विषयक ख़ास सिद्धान्तकी बात। है और यह ध्यान प्रायः मुनि अवस्था ही अब यदि आम तौरसे मूर्तिपूजाके सिद्धान्त में होता है।
पर नज़र डाली जाय और मूर्ति के स्वरूप आत्मीय बलके इतना उन्नत हो जाने पर सूक्ष्मताके साथ विचार किया जाय की अवस्थामें फिर उसको धातुपाषाणकी और उसके अर्थ-संबन्धमें कुछ गहरा मूर्ति के पूजनादिकी या दूसरे शब्दों में यों उतरा जाय तो मालूम होगा कि संसारकी कहिये कि परमात्माके ध्यानादिके लिए कोई भी उपासना बिना मूर्तिके नहीं बन मूर्तिका अवलम्बन लेनेकी ज़रूरत बाकी सकती-मूर्तिका अवलम्बन ज़रूर लेना नहीं रहती; बल्कि वह रूपस्थध्यानके पड़ता है, चाहे वह मूर्ति सूक्ष्म हो या अभ्यासमें परिपक्व होकर और अधिक स्थूल । आप किसीकी प्रशंसा नहीं कर उन्नति करता है और साक्ष सिद्धोंका सकते जबतक कि मूर्तियों का सहारा न चित्र भी खींचने लगता है जिसको 'रूपा- ले लेवे । शब्द जिनके द्वारा परमात्माकी तीत ध्यान' कहते हैं। इस प्रकार ध्यानके या किसीकी भी स्तुति की जाती है, नाम बलसे वह अपने आत्मासे कर्ममलको लिया जाता है और गुणानुवाद गाया छाँटता रहता है और फिर उन्नतिके सो जाता है वे सब मूर्तिक हैं, मूर्तिकसे पानपर चढ़ता हुआ शुक्ल ध्यान लगाकर उत्पन्न होते हैं, मूर्तिक पदार्थोंसे रोके समस्त कर्मोको क्षय कर देता है और इस जाते है, फोनोग्राफ़में भरे जाते हैं और प्रकार प्रात्मत्वको प्राप्त कर लेता है। इसलिये एक प्रकारकी सूक्ष्म मूर्तियाँ हैं। अभिप्राय इसका यह है कि, मूर्ति
है। इसी तरह शब्दोंके द्योतक जो अक्षर हैं ये पूजा आत्मदर्शनका प्रथम सोपान है और
- भी शब्दोंकी नाना प्रकारकी प्राकृतियाँ उसकी आवश्यकता प्रायः प्रथमावस्था
हैं-मूर्तियाँ हैं जिन्हें भिन्न भिन्न देशों (गृहस्थावस्था) हीमें होती है। बल्कि,
__ अथवा जातियोंने अपने अपने व्यवहारके दूसरे शब्दोंमें, यों कहना चाहिये कि
लिये कल्पित कर रक्खा है। हाथीको जितना जितना कोई नीचे दर्जे में है, उतना
संस्कृतमें 'गज', प्राकृतमें 'गय', फारसी
में 'फील', अरबीमें 'पील' और अंग्रेजीमें उतना ही ज्यादा उसको मूतपूजाका या मूर्तिका अवलम्बन लेनेकी ज़रूरत है।
'एलिफेट' ( Elephant ) कहते हैं । यही कारण है कि हमारे प्राचार्योने
अन्यान्य भाषाओंमें उसके दुसरे नाम हैं
और एक एक भाषामें कई कई नाम भी गृहस्थोंके लिये इसकी ख़ास ज़रूरत रक्खी है और नित्य पूजन करना गृहस्थ
हैं-जैसे संस्कृतमें इभ, करी इत्यादिकका मुख्य धर्म वर्णन किया है* ।
और ये सब नाम अनेक लिपियोंमें भिन्न भिन्न प्रकारसे लिखे जाते हैं। इन शब्द
रूप मूर्तियोंके कानोसे टकराने पर या • दाणं पूजा मुक्खं सावयधम्मो ण सावगो तेण विणा ।
• अक्षररूप मूर्तियोंके नेत्रोंके सामने आनेभाणज्झयर्ण मुवखं जइधम्मो तंविणा सोवि ।।
-रयणसार।
। पर जब हाथी नामके एक विशाल जन्तु
पर जब हाथ देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
(जानवर) का बोध होता है तो वह हाथीदानं चेति गृहस्थानां षटकमोणि दिने दिने ॥
की साक्षात् (तदाकार) मूर्तिको देखनेपर -पद्मनंदिपंचविंशतिका। उससे कहीं अधिक हो सकता है और
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