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________________ जैनहितैषी। [भाग १५ होता है। हाथीके नामसे हाथीकासामान्य सामने रखकर ध्यान करनेसे यदि किसी ज्ञान ही होता है, परन्तु उसकी तदाकार पुण्य-फलकी प्राप्ति होती है तो वह तदा. मूर्तिके देखनेसे रङ्ग-रूप और आकार. कार मूर्ति परसे परमात्माका चिन्तवन प्रकारादिका बहुत कुछ हाल मालुस हो । करनेसे भी जरूर होती है और ज्यादा हो आता है। यही दोनों में विशेष है, और सकती है। ऐसी हालतमें जो खोग परइसी विशेषकी वजहसे आजकल विद्वान मात्माकी शब्दों और अक्षरोंमें लापना लोग शिक्षालयोंमें भी चित्रों और मूर्तियों- करके उन अतदाकार मूर्तियोंके द्वारा के द्वारा बालकको शिक्षा देना ज़्यादा उसकी उपासना करते हैं उन्हें परमात्मापसन्द करने लगे हैं। 'की तदाकार मूर्तियाँ बनाकर उपासना परमात्माके सम्बन्धमें भी यही सब करनेवालों पर आक्षेप करनेकी जरूरत बातें समझ लेनी चाहिएँ। परमात्माके नहीं है और न वैसा करनेका कोई हक ईश्वर, परब्रह्म, अल्ला, खुदा, गौड (God) ही है; क्योंकि वे स्वयं ही मूर्तियों द्वारा आदि नामोंके उच्चारण करनेसे अथवा बल्कि अस्पष्ट मूर्तियों द्वारा-परमात्माकी इन नामोंको किसी लिपिविशेषमें लिख- उपासना करते हैं और उससे शुभ फलका कर सामने रखमेसे इन उभय प्रकारकी होना मानते हैं। वास्तवमें यदि देखा (शब्द अक्षर रूपवाली) मूर्तियोंके द्वारा जाय तो कोई भी चिन्तवन अथवा ध्यान यदि परमात्माका बोध होता है तो पर- बिना मूर्तिका सहारा लिये नहीं बन मात्माकी तदाकार मूर्ति-उसकी जीव- सकता और न निराकारका ध्यान ही मुक्कावस्थाकी आकृति-के देखनेसे हुआ करता है। प्रत्येक भ्यान अथवा वह बोध और भी ज्यादा स्पष्ट होता है। चिन्तवनके लिए किसी न किसी मूर्ति या यदि यह कहा जाय कि ऐसी मूर्तिके आकार विशेषको अपने सामने रखना द्वारा परमात्माका कुछ बोध ही नहीं होता है, चाहे वह नेत्रोंके सामने हो होता तो वह शब्दों और अक्षरोंके द्वारा अथवा मानस प्रत्यक्ष । इसी अभिप्रायको बिलकुल नहीं होता, यह कहना चाहिए, हृदयमें रखकर उर्दूके एक कवि पं० मंगतक्योंकि वे भी मूर्तियाँ हैं और अतदाकार रायजी नानोताने ठीक कहा हैमूर्तियाँ हैं। जब तदाकार मूर्तियोंसे ही, "अबस यह जैनियों पर जो कि ज्यादा विशद होती हैं, अर्थावबोध इत्तहामे बुतपरस्ती है। नहीं होता तो फिर अतदाकार मूर्तियोसे बिना तसवीरके हरगिज यह कैसे हो सकता है ? परन्तु यह कहना तसव्वर हो नहीं सकता।" ठीक नहीं है । इसी तरह यह. भी समझना चाहिए कि परमात्माका नाम लेने अर्थात्-जैनियों पर बुतपरस्तीकासे, शब्दों द्वारा परमात्माकी स्तुति करने मूर्तिपूजा विषयक- जो इलजाम लगाया से-परमात्मनेनमः, ईश्वरायनमः, पर जाता है-यह कहा चाता है कि वे धातुब्रह्मणे नमोनमः, ऊँनमः, णमो अरहंताणं, पाषाणके पूजनेवाले हैं-वह बिलकुल प्रल्हम्दोलिल्ला* इत्यादि मन्त्रोंके उच्चारण व्यर्थ और निःसार हैं; क्योंकि कोई भी करनेसे-या 'ऊँ' श्रादि अक्षरोंकी आकृति तसव्वर-कोई भी ध्यान अथवा चिन्त वन-बिना तसवीरके, बिना मूर्ति या यह अरवी भाषाका मुसलमानी मन्त्र है। चित्रका सहारा लिये नहीं बन सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522887
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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