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________________ उपलना-तत्व। भावार्थ, ध्यान तथा चिन्तवनकी सभीको भी महत्व नहीं दिया जा सकता। अथवा निरन्तर जरूरत हुआ करती है. इसलिए यों कहना चाहिए कि ऐसे लोगोंको सभीको मर्तियोंका श्राश्रय लेना पडता मूर्तिका रहस्य मालूम नहीं है। उन्हें यह है और इस दृष्टिसे सभी मूर्तिपूजक हैं। खबर ही नहीं कि ऐसा कोई भी मनुष्य तब, जैनियों पर ही कैसे उसका दोष संसारमें नहीं हो सकता जो मूर्तिका मढ़ा जा सकता है। उन्हें इस विषयमें, उपासक न हो अथवा परमात्माकी उपादोष देना बिलकुल फजूल और निर्मूल सनामें मूर्तिकी सहायता न लेता हो; और है। वे अपनी मूर्तियोंके द्वारा परमात्मा इसलिए उन्हें ऊपरके इस सम्पूर्ण कथनहीका ध्यान तथा चिन्तवन किया करते हैं। से मूर्तिका रहस्य खूब समझ लेना इसलिए जो लोग मूर्तिपूजाका निषेध चाहिए और यह जान लेना चाहिए कि करते हैं, मूर्तिको जड़, अचेतन, कृत्रिम इन स्थूल मूर्तियोंकी पूजाका कोई दूसरा बतलाकर और यह कहकर कि वह उद्देश्य नहीं है, इनके द्वारा परमात्माकी हमारा कुछ भला नहीं कर सकती, उससे ही उपासना की जाती है। ये परमात्माघुणा उत्पन्न कराते हैं, यह सब उनकी के प्रतिरूप हैं, प्रतिबिम्ब है और इसी बड़ी भूल है। वे खुद बात बातमें मूर्ति- सिए इन्हें प्रतिमा भी कहते हैं । बुद्धिमान् का सहारा लिया करते हैं, मूर्तियोंका लोग इनमें परमात्माका दर्शन अथवा आदर सत्कार करते हुए देखे जाते हैं,* इनके सहारेसे अपनी आत्माका अनु. जड़ पदार्थों के पीछे भटकते हैं, उनके लिए भवन किया करते हैं, जैसा कि हमने अनेक प्रकारकी दीनताएँ करते हैं, संसार- शुरूमें प्रकट किया है। नीचेके एक पद्यमें उनका कोई भी काम जड़ पदार्थोकी से भी पाठकोंको ऐसा ही मालूम होगा, सहायताके बिना नहीं होता, वे अपने जिसमें कवि मैथिलीशरणजीने उन भावोंचारों ओर जड़ तथा कृत्रिम पदार्थोसे को चित्रित किया है जो इस विषयमें, घिरे रहते हैं और उनसे नाना प्रकारके एक सामन्तके हृदयमें उस समय उदित काम निकाला करते हैं, जड़ तथा कृत्रिम हुए थे जब कि उसके देशके किलेकी गालीको सुनकर उन्हें रोष हो जाता है, मूर्ति बनाकर एक राणाके द्वारा, अपनी प्रतिज्ञा पूरी करनेके अभिप्रायसे तोडी जगत्का सम्पूर्ण कार्य व्यवहार प्रायः जाती थी और जिसे उस सामन्तने अपने जड़ तथा कृत्रिम मूर्तियों की सहायतासे उन भावोंके अनुसार तोड़ने नहीं दिया ही चल रहा है। इतने पर भी उनका था, बल्कि उसके लिए राणाले युद्ध मूर्तिको जड़ तथा कृत्रिम बतलाकर किया था । वह पद्य इस प्रकार है:. उससे घृणा उत्पन्न कराना कहाँतक ठीक --------- है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। प्रतिज्ञा जो सहसा क्रोधके आवेशमें बिना सोचे वास्तवमें, यह सब साम्प्रदायिक मोह, समझे की गई थी, यह थी कि जबतक उस देशके किलेमापसकी खींचातानी तथा पक्षपातका को नहीं तोड़ डालूँगा तबतक अन्नजल ग्रहण नहीं करूँगा। परन्तु सेना सजाकर वहाँतक पहुँचने श्रादिके नतीजा है और तात्विक दृष्टिसे उसे कुछ लिए. कितने ही दिनोंकी जरूरत थी और उस वक्ततक * वेदादि शास्त्रोंकी विनय और अपने महात्माओंके भूखा नहीं रहा जा सकता था, इसलिए प्रतिशा परी करने चित्रोंकी इज्जत करते हैं। परमात्माओंके नामादिकोंको के लिए मन्त्रियों द्वारा मूर्तिको तोड़नेकी योजना की बड़ी भक्तिके साथ उच्चारण करते हैं। गई थी। a Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522887
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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