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________________ ११६ विवाह, स्वयंवर रीतिले विवाह, परदेका अभाव आदि शास्त्रोक्त बातोंको भी मान्य समझना होगा । प्रत्युत, उन्होंने अपनी पण्डिताईके भरोसे पर उपस्थित जनताको श्राश्चर्यमें डुबाते हुए यहाँतक कह डाला कि “जैनधर्म प्रत्येक गृहस्थको बाध्य करता है कि एक पुत्र अवश्य उत्पन्न करे, दत्तक पुत्र होनेपर भी श्रावश्यक है कि अपना पुत्र अवश्य पैदा करे ! यही नहीं, यदि ऋतु कालको प्राप्त स्त्रीसे उसका पति संभोग न करे तो वह भ्रणहत्याका पापी होता है और जो स्त्री ऐसे समयमें अपने पतिके पास न जावे तो वह दूसरे जन्ममें शृगाली अथवा शूकरी होती है !!” मालूम नहीं पण्डितजीको कौनसे जैन सिद्धान्तसे ऐसा अनुभव हुआ है और किस श्रार्ष ग्रन्थमें उन्हें ये सब बातें लिखी हुई मिली हैं !* परन्तु इसे रहने दीजिए और नतीजेपर श्राइये । वह यह कि, पण्डितजीके इतना कह ste पर भी जनताने उनकी बातको कुछ भी महत्त्व न देकर उसे नहीं माना और बाबू साहबका संशोधन स्वीकार करके बहुविवाहके निषेधका प्रस्ताव पास कर ही दिया । इस तरहपर यह प्रस्ताव बहुतसे विरोधको सहन करके हमारे सामने श्राया है, जिसका हम अनेक दृष्टियोंसे अभिनन्दन करते हैं । जैनहितैषी । २ - हठधरमी और पक्षपात । अनुचित दबाव । दि० जैन खंडेलवाल महासभाने, अपने कलकत्तेके अधिवेशन में, सबके * सुना जाता है कि किसीने मन्दिरजीमें एक नोटिस लगाया था और उसके द्वारा पण्डितजीसे दरियाफ़ किया था कि वे इस बातको बतलावें कि कौनसे आर्ष ग्रन्थ में यह भ्रमहत्वावाली बात लिखी है। Jain Education International [ भाग १५ अन्तमें जो प्रस्ताव (नं० १७) पास किया है वह इस प्रकार है "जैनहितैषी, सत्योदय और जातिप्रबोधक ये तीनों पत्र जैनागमको झूठा बतलाते हैं और हमारे परम पूज्य तीर्थकरों व श्राचायको गालियाँ तक देते हैं। अतः यह भारतवर्षीय खं० दि० जैनमहासभा प्रस्ताव करती है कि ये तीनों पत्र जैन पत्र न समझे जावें तथा इन तीनोंका बहिष्कार किया जावे ।" जैनहितैषी सहृदय पाठक अपने इस पत्रके सम्बन्धमें ऐसी झूठी और निःसार लांछनाओं को देखकर ज़रूर एकदम चौंकेंगे और श्राश्चर्यके साथ यह कहेंगे कि क्या उक्त सभामें ऐसे ही विचारशील, विवेकी और निष्पक्ष विद्वान् मौजूद थे जिन्होंने इतने अधिक सफेद झूठ को अपने प्रस्ताव में स्थान देना पसन्द किया है ? परन्तु उन्हें इस प्रकारसे चौंकने और श्राश्चर्य करनेकी ज़रूरत नहीं है । वास्तवमें, यह प्रस्ताव सभाकी शुद्ध सम्मति से पास नहीं किया गया बल्कि कुछ हठधर्मी और पक्षपाती लोगोंके अनुचित दबावका परिणाम है, जिसका रहस्य हम अपने पाठकोंके संतोषार्थ नीचे प्रकट करते हैं 1 उक्त सभाके सभापति श्रीमान् सेठ लालचन्दजी सेठीने, अपने व्याख्यानमें, समाजकी उस बहिष्कार नीतिको अनुचित और अनावश्यक बतलाते हुए जो कि कुछ सामाजिक पत्रोंके साथमें चल रही है, समाजके कुछ पत्रोंकी प्रशंसा की थी और उनमें "जैनहितैषी " को सबसे प्रथम स्थान प्रदान किया था—यह कहा था कि, "मैं वर्तमान सामाजिक पत्रोंमें "जैनहितैषी" और "जैनमित्र" की प्रशंसा किये बिना नहीं रहूँगा, जिनका सम्पादन बड़ी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522887
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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