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________________ प्रतिमाके लेखपर विचार । समय भी दिया है, जो विदादग्रस्त है।' कुन्दाचार्यकी प्रान्नायमें हो.गये हैं। पं० दूसरे भागकी शेष चारों पंक्तियों में उन मेधावीने वि० सं० १५१६ में एक दान. गृहस्थोंका परिचय है जिन्होंने उक्त मुनि- प्रशस्ति बनाई थी जो मूलाचारको वसु. के उपदेशसे इस प्रतिमाको स्थापित नन्दिवृत्तिकी उस प्रतिमें लगी हुई है अथवा प्रतिष्ठित कराया और जो नित्य जिसका उल्लेख पिटर्सन साहबने अपनी इसकी पूजा-वन्दना किया करते थे। ऐति- द्वितीय रिपोटके पृष्ठ १३६ पर किया है। हासिक निर्णयके लिए लेखका पहला संवत् १५१६ में उसी दातारकी तरफ़से भाग सबसे अधिक ज़रूरी और मुख्य है. फिर एक दूसरा ग्रन्थ दान किया गया और इसलिए उसे हम ज्योंका त्यों नीचे जिसका नाम 'त्रैलोकाप्रज्ञप्ति' है। उसके उद्धृत करते हैं : साथ भी वह दानप्रशस्ति जुड़ी हुई है और ... "संवत् ४९ वर्षे जेष्ठ बदी ६ बधवारे जिसका उल्लेख पिटर्सन साहबने अपनी श्रीमूलसंघे नंद्याम्नाए धवलाकार गणे चौथी रिपोर्ट में किया है। इस दानसरस्वतीगच्छे श्रीकुंदकंदाचार्यान्वये भ. प्रशस्ति में भी पं० मेधावीने, जिनका दूसरा पद्मनंदिदेवा तत्पट्टे भ० श्रीशुभचंद्रदेवा नाम 'मीहा' था, अपने गुरु जिनचन्द्रके तत्पट्टे श्रीजिनचंद्रानाये मुनिश्रीसहस्रकीर्ति सम्बन्धमें यही सूचित किया है कि वे उपदेशात् ।" उन शुभचन्द्राचार्य के पहपर प्रतिष्ठित हुए थे जोकि पद्मनन्दिके पट्टधर थे। यथाःलेखके इस अंशसे यह बिल्कुल स्पष्ट अथश्रीमूलसंघेऽस्मिन् है कि मुनि सहस्रकीर्ति उन श्रीजिनचन्द्रकी मानार्यमें थे जो कि भट्टारक पद्मनंदि . नंदिसंघेऽनघेजनि । के पट्टधर श्रीशुभचन्द्राचार्यके पट्टपर बलात्कारगणस्तत्र प्रतिष्ठित हुए थे। अब देखना यह है कि गच्छः सारस्वतस्त्वभूत् ॥११॥ उक्त 'श्रीजिनचन्द्र भट्टारक' कब हुए हैं। तत्राजनि प्रभाचन्द्रः उनका निश्चित समय मालूम होनेपर सूरिचन्द्राजितांगजः। .. लेखका सब हाल खुल जायगा। दर्शनज्ञानचारित्र पण्डित मेधावी (मीहा) का बनाया तपोवार्यसमन्वितः ॥१२॥ दुमा 'धर्मसंग्रह श्रावकाचार' नामका श्रीमान् बभूव मार्तडएक ग्रन्थ है जो कि विक्रम संवत् ५४१ स्तत्पट्टोदय भूधरे । में बनकर समाप्त हुआ है। इसकी प्रशस्ति पद्मनंदी बुधानंदी में प्रन्थकर्ताने अपनेको 'जिनचन्द्र' का शिष्य लिखा है और यह प्रकट किया है तमच्छेदी मुनिप्रभुः ॥१३।। कि ये जिनचन्द्र श्रीशुभचन्द्राचार्यके पट्ट- तत्पट्टाम्बुधिसञ्चान्द्रः पर प्रतिष्ठित हुए थे और शुभचन्द्राचार्य शुभचन्द्रः सतांवरः। । उन पद्मनन्दिके पट्टधर थे जो श्रीकुन्द- पंचाक्षवनदावाग्निः कषायक्ष्माधराशनिः ॥१४॥ * यह 'बलात्कार' होना चाहिए; क्योंकि इस गखका ठीक नाम यही है। सम्भव है कि प्रेसकी गलतीसे ऐसा तदीय पट्टाम्बर भानुमाली ....... अशुद्ध रूप छपा हो। क्षमादि नानागुणरत्नशाली। .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522887
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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