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________________ १२२ जैनहितैषी। भाग 1 और कभी दूसरा जीता व पहला हारा; गांधीको सरपंच करनेकी बात छेड़ी है। पर आजतक न कभी किसी एककी जीत हिन्दुस्थानमें क्या सारी दुनियामें महात्मा • ही जीत हुई और न दूसरे की हार ही गांधीसे बढ़कर कोई समभावशील इस हार । जिस समय अधिकारी जिसके समय न सुना गया। यह तो स्पष्ट बात लिए अधिक अनुकूल हुए और जिसने है कि अदालतके पेट भरे और मुलाहिजाउनकी अधिक पूजा की उस समय वे वाले अधिकारियोंका निर्णय हमारे ऊपर उसीपर तुष्ट हुए, दूसरे समय दूसपर। उतना असर नहीं डाल सकता जितना इस तरह दोनों सम्प्रदायोंकी मुकदमे- कि असर म. गांधीका किया हुश्रा निर्णय बाजीके नतीजेका चक्र अस्तोदयरूपमें डाल सकता है। अगर हम ऐसे महात्माचलता ही रहा है और हारनेवाला सम्प्र. से फायदा न उठा सके तो फिर यह भी दाय फिर जीतनेकी आशासे भरसक समझ लेना चाहिए कि हमारी बुद्धि दौड़ लगा रहा है। यही आजतकका दोनों इतनी मारी गई है कि न हम भगवानकी सम्प्रदायोंके तीर्थरक्षणका इतिहास है । मूर्तिसे ही फायदा उठा सकते हैं, न तीर्थक्या कलह करनेके सिवाय समाधानीके से और न शास्त्रसे ही। हमको अपने साथ तीर्थरक्षणका कोई मार्ग ही नहीं हितकी सच्ची दिशा मालूम कर लेनी निकल सकता? निकल सकता है, पर चाहिए, और उदारतापूर्वक आपसकेसमअज्ञानका प्रावरण और हठका जहर ऐसी झौतेके लिए यत्न करना चाहिए। इसमें चीजें हैं कि मनष्यको सत्य वस्तका बोध त्यागकी भावना जरूर रखनी चाहिए। नहीं होने देती। अब और देशों के साथ अपना थोड़ासा हक चला जाय तो उसे साथ हिन्दुस्तानमें भी स्वावलम्बी होकर भाईके हाथमें गया हुआ समझकर उसी हिताहितके निर्णय करने का भाव उदित तरह सन्तोष मानना चाहिए जिस तरह : हो रहा है और अपनी शक्तिका वृथा एक भाई दूसरेको कोई चीज इच्छापूर्वक व्यय न करके उसको एकान्त हितकारी देकर सन्तोष मानता है । मैं त्यागभावना. काममें लगानेका भाव भी प्रकट होने को सामने रखकर दोनों सम्प्रदायोंके लगा है। जैनसमाजको भी इस पवित्र भाइयोंसे सविनय प्रार्थना करता हूँ कि भावसे वश्चित न रहना चाहिए और इस वे इस काल-लब्धिको, सत्यधर्मको पहतरह अहिंसा भावकी रक्षा करके सच्चे चाने और प्रस्तुत प्रस्तावको एक आवाज. जैनत्वका परिचय देकर समय, बुद्धि से मंजूर कर लें। (अहिंसा।) तथा धनको विद्या व चरित्रकी वृद्धि में लगाना चाहिए । यह काम आपसमें समझौता कर लेनेसे ही हो सकता है । इसके लिए पहले भी कुछ लोगोंने प्रयत्न किया था जो दुर्भाग्यवश निष्फल हुआ था। पर अब देशके कोने कोने में और कालके अंशमें एकताकी गूंज सुनाई दे रही है। खुशीकी बात है कि अहिंसा पत्र में श्रीयुत शाना. मन्दजी वर्णीने तीर्थोके झगड़ों को आपसमें निपटानेका प्रस्ताव किया है और महात्मा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522887
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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