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________________ २२२ जैनहितैषी। [भाग ४ दक्षिणके भट्टारक ऐसा करनेकी आशा ये सब बातें मानी जा सकती हैं ? जकर देते हैं। ये लोग प्रतिष्ठा भी करते व आपपर आक्षेप होंगे। आपको तो उनसे 'कराते हैं तथा मन्दिरोंमें यत्र तत्र प्रक्षाल- बचनेके लिए यही कहना चाहिए था कि, पूजन भी करते हैं। इन्हींमसे कुछ लोग ऐसे लोगोंको जैनी ही न समझा जाय महासभा व प्रान्तिक सभाके सभासद और न उनसे किसी प्रकारका कोई भी होंगे, परन्तु ऐसा ऊधम करनेसे दि. सम्बन्ध रक्खा जाय ! बल्कि, वश चले जैनसमाजमें बड़ी खलबली पैदा होगी। तो, उन्हें देशसे भी निकाल दिया जाय ! इसमें सन्देह नहीं कि सम्पादकको इस ऐसा करनेपर रघुनाथदासजी जैसे पंडितप्रथाका विरोध करना चाहिए व उपदेश जन जरूर आपपर प्रसन्न होते और आप. देकर इन सबको भी रोकना चाहिए तथा का बहुत कुछ यशोगान करते । प्राशा है, अन्योंके भावोंको भी बदलना चाहिए। ब्रह्मचारीजी श्रागेसे इस नेक सलाहपर परन्तु कोई भी सम्बन्ध ऐसे विचार- जरूर ध्यान रक्खेंगे। और यदि उन्हें ऐसे . वालोंसे न रखना वर्तमान स्थितिको देखते पण्डितोका अाराधन इष्ट होगा तो वे हुए बुद्धिमानी न होगी। और अनैक्य जरूर उसपर अमल करेंगे । अन्यथा, बढ़ाने प्रत्युत् विधवाविवाहके पक्षको अपने अन्तःकरणकी आवाजके अनुकूल मजबूत करने में कारणीभूत पड़ेगी। स्पष्टवादी होना उनका खास धर्म है, सम्पादकको सोच समझकर लिखना जिसके पालनमें उन्हें सदा सावधान चाहिए।" रहना चाहिए। सूचना यद्यपि बहुत कुछ ठीक है, परन्तु जहाँतक हम समझते हैं, ऐसी सूच- ७-क्या में पत्र-सम्पादक हो सकूँगा। नाओंके निकालने अथवा बातोंके लिखने- परलोकगत मि० डब्ल्यू टी० स्टेडका से ही ब्रह्मचारीजीपर व्यक्तिगत आक्षेप नाम पत्र-सम्पादकोंमें विशेष उल्लेख योग्य होते हैं, जिनकी वे अपने पत्रमें खास है। श्राप सम्पादन-कलाके प्राचार्य माने तौरसे शिकायत करते हैं । इसलिए यदि जाते हैं। आपका प्रभाव इतना बढ़ा चढ़ा वे उन आक्षेपोंसे बचना चाहते हैं तो, था कि बड़े बड़े राजा भी आपसे परामर्श हम उन्हें यही सलाह देगे कि वे इस लिया करते थे। प्रकारके लेख न निकाला करें; बल्कि ऐसे प्राक्षेपकारियोंकी पूरी तौरसे हाँ हाँ एक समय, लगभग ३० वर्ष पूर्व, ही मिलाया करें जिससे फिर उन्हें व्यक्ति ___ "टाइम्स" के वर्तमान प्रधान सम्पादक गत आक्षेपों के लिए जरा भी चिन्ता न मि० विकहम स्टेडने उनसे पूछा कि मैं करनी पड़े। भला जिस विधवाविवाहके सम्पादक हो सकूँगा या नहीं। इसके विरुद्ध इतना आन्दोलन हो रहा है और उत्तरमें मि० डब्ल्यू. टी० म्टेडने जो कुछ जिसपर प्रकाश डालनेवाले कुछ लेखोंको कहा वह "श्राज” के शब्दोंमें इस प्रकाशित करनेके अपराध ही कतिपय प्रकार है का पत्रोंका, वास्तवमें, बहिष्कार किया गया “सम्पादक, मैं क्या जानूँ, आप सम्पाहै, उसीके तरफदारोंके साथ सम्बन्ध दक होने के योग्य हैं या नहीं ? इसके जाननेरखनेकी आप सलाह देते हैं, यह कैसे का एक ही उपाय है। यदि आप वास्तवमें सहन हो सकता है ? और कैसे आपकी कुछ कहना चाहते हैं तो उसे लिखिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522887
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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