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- जैनहितैषी।
[भाग १५ कमी नहीं करनी चाहिए। पुस्तकालयो- आज वह कैसी जगमगा रही है। यह भी का महत्त्व आप साहबोसे छिपा नहीं हमारी तरह व्यापार-पेशा कौम है। है। मेरी प्रार्थना है कि प्रत्येक मन्दिर, तादादमें हमसे काम है। मगर उनमें प्रत्येक गाँव. प्रत्येक कस्बे. प्रत्येक शहर विद्याका खब प्रचार है। यही वजह है और जहाँतक हो सके प्रत्येक घरमें अच्छे कि वे हमसे बढ़े हुए हैं और हम लोगोंमें अच्छे ग्रन्थोकी लाइब्रेरियाँ होनी चाहिएँ।” टाटा जैसे संसार-प्रसिद्ध व्यवसायशील .. स्वर्गीय बा० देवकुमारजी द्वारा उद्योगी व्यापारी नजर नहीं आते । मैं स्थापित प्राराके "जैनसिद्धान्त भवन" चाहता हूँ कि हमारे भाई धार्मिक हदसे की प्रशंसा करते हुए आपने कहा-"कुछ बाहर न होते हुए संस्कृत, भारतकी राष्ट्र दिनों पहले इसने एक ऐतिहासिक पत्र भाषा हिन्दी और अँगरेजीकी ऐसी भी निकालना शुरू किया था, परन्तु खेद योग्यता प्राप्त करके निकले जो अपना है कि वह बहुत जल्दी बन्द हो गया। मैं जीवन तो भली भाँति निभावे ही-मगर चाहता हूँ कि इस तरह के बृहत् सरस्वती साथ ही बड़े जबरदस्त व्यापारी भी हो, भवन (विद्या-मन्दिर) प्रत्येक प्रान्तमें कम- उनकी भी आवाज हो और उनका भी से कम बहुत जल्दी खुलने चाहिएँ। प्रभाव राजनीतिपर पड़े।मैं चाहता हूँ कि क्योंकि इन शास्त्रोकी बदौलत ही अपना यह सभा ऐसा प्रबन्ध करे जिससे हम पुराना इतिहास, पुराना गौरव और लोगों की धार्मिक शिक्षाके ही साथ साथ पुराने उच्च नियम जाने जा सकते हैं और लौकिक विद्या भी बहुत ऊँचे दर्जेकी हो प्राचार-व्यवहारको बतानेवाले भी यही और हमारी जाति किसीसे भी पिछड़ी न प्रन्थ हैं।"
रहे। खाली अँगरेजीके विद्वानोंसे भी काम विद्या और विद्यालयके सम्बन्धमें नहीं चलेगा। हम लोगोंको अपना अस्तित्व जो विचार आपने प्रकट किये हैं वे इस कायम रखनेके लिए और उत्तरोत्तर प्रकार हैं-"जैन जातिमें कुछ वर्षोंसे जातीय तथा धार्मिक गौरव बढ़ानेके विद्यालय और स्कूल आदि खुले हैं, मगर लिए सञ्चरित्र और धर्मानुरागी उद्योगइनमेंसे जो विद्वान् निकलते हैं उनसे शील विद्यार्थी विद्यालयों से कैसे निकले, यथेष्ट
नहीं होता । जमानेकी इत्यादि बातोंका खूब विचारकर विद्यागतिको देखते हुए कोरी संस्कृत या का सिलसिला कायम करना चाहिए । प्राचीन विद्यासे अब काम नहीं चलने- हमारी वर्तमान शिक्षा-पद्धति सन्तोषका। हम लोग व्यापारी हैं। व्यापार दायक नहीं है।" हमारा खास पेशा है-जीवन है। एक पुरानी संस्थाओं से 'जैन-सिद्धान्त जमाना ऐसा भी बीत गया कि हमारा विद्यालय मोरेना, स्याद्वाद महाविद्यालय काम यहाँके व्यापारसे ही चल जाता था। काशी, ऋषभब्रह्मचर्याश्रम हस्तिनापुर, मगर अब विदेशोंसे व्यापार किये बिना महाविद्यालय मथुरा, जैपुरकी जैनपाठकाम नहीं चलता और विदेशोंसे ठीक शाला और छात्रालयके कामका उल्लेख ठीक व्यापारिक-सम्बन्ध रखनेके लिए करते हुए आपने कहा-"मगर इनमें जरूरत है कि अँगरेजीकी अच्छी योग्यता समयानुकूल उचित परिर्वतन करके हमें हो । हम देखते हैं कि व्यापार विद्या हीके, चाहिये कि इनको 'शान्तिनिकेतन' और पलसे चलता है। पारसी कौमको देखिए, 'प्रेम महाविद्यालयके' ढंगके आदर्श विद्या
लली
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