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जनहितैषी।
[भाग १५ दिया है, जिससे मालूम होता है कि कवि- टीका की * प्रस्तावनामें तत्त्वार्थ सूत्रकी की जन्मभूमि 'अहिच्छत्रपुर' * थी, वे उत्पत्ति जिस प्रकारसे बतलाई है उसका 'प्राग्वाट' वंशमें उत्पन्न हुए थे और उनके संक्षिप्त सार इस प्रकार है--"सौराष्ट्र पिताका नाम 'छाहड़' था। नम्बर ७ देशके मध्य ऊर्जयन्तगिरिके निकट गिरिवाला दूसरा पद्य पं० दौर्बलि जिनदास नगर (जूनागढ़ ?) नामके पत्तनमें आसन्नशास्त्रीके भण्डारकी एक प्रतिमें भी पाया भव्य, स्वहितार्थी, द्विजकुलोत्पन्न, श्वेता. जाता है, परन्तु उसका पाठ, जैसा कि म्बर-भक्त ऐसा 'सिद्धय्य' नामका एक वह एक बार जैनहितैषीमें प्रकाशित विद्वान् श्वेताम्बरमतके अनुकूल सकल हुआ था, + कुछ स्पष्ट और अशुद्ध जान शास्त्रका जाननेवाला था। उसने 'दर्शनपड़ता है। उसमें 'प्राग्वाटकुल' के स्थानमें ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः' यह एक सूत्र '."भटकुल' ऐसा कुछ अस्पष्ट और बनाया और उसे एक पाटिये पर लिख अपूर्ण पाठ है। साथ ही 'छाहडस्य' के छोड़ा। एक समय चर्यार्थ श्रीगृध्रपिञ्छास्थानमें 'छादस्य' ग़लत लिखा है और चार्य 'उमास्वाति' नामके धारक मुनिवर उससे तीसरे चरण में एक अक्षर भी कम वहाँ पर आये और उन्होंने आहार लेनेके हो गया है । इसी पाठके आधार पर पश्चात् उस पाटियेको देखकर उसमें उक्त श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमीने उस समय सूत्रके पहले 'सम्यक्' शब्द जोड़ दिया। प्रन्थकर्ताको 'छाद' का पुत्र प्रकट किया जब वह (सिद्धय्य नामका) विद्वान् बाहरसे था, जो कि अब, शुद्ध पाठके सामने आने- अपने घर आया और उसने पाटिये पर पर साफ़ तौरसे 'छाहड' का पुत्र मालूम 'सम्यक्' शब्द लगा देखा तो उसने प्रसन्न होता है। इस ग्रन्थकर्ताका विशेष इति- होकर अपनी मातासे पूछा कि, किस हास मालूम होनेकी ज़रूरत है। साथ ही, महानुभावने यह शब्द लिखा है। माताने कुछ प्रबल प्रमाणों द्वारा यह भी निश्चित उत्तर दिया कि एक महानुभाव निर्ग्रन्थाहोनेकी ज़रूरत है कि 'वाग्भटालङ्कारः चायने यह बनाया है। इस पर वह गिरि
और इस ग्रन्थके कर्ता दोनों एक ही और अरण्यको ढूँढ़ता हुआ उनके आश्रमव्यक्ति थे या भिन्न भिन्न और किस सम्प्र. में पहुँचा और वहाँ भक्तिभावसे नम्रीभूत दायसे सम्बन्ध रखते थे। अभीतक इस होकर उक्त मुनि महाराजसे पूछने लगा विषयमें, काव्यमालाके सम्पादक आदि कि, आत्माका हित क्या है (यह प्रश्न द्वारा जो कुछ लिखा गया है वह पर्याप्त और इसके बादका उत्तर प्रत्युत्तर प्रायः नहीं है।
सब वही है जो 'सर्वार्थसिद्धि' की प्रस्ता५-तत्त्वार्थ सत्रकी उत्पत्ति। वनामें श्रीपूज्यपादाचार्यने दिया है।)
मुनिराजने कहा 'मोक्ष' है। इस पर मोक्षउमाखातिके तत्त्वार्थ सूत्र पर 'तत्त्व
तत्त्व का स्वरूप और उसकी प्राप्तिका उपाय रत्नप्रदीपिका' नामकी एक कनडी टीका
पूछा गया, जिसके उत्तररूपमें ही इस बालचन्द्र मुनिकी बनाई हुई है, जिसे
ग्रन्थका अवतार हुआ है। 'तत्त्वार्थतात्पर्यवृत्ति' भी कहते हैं। इस
इस तरह एक श्वेताम्बर विद्वान्के देखो जैनहितैषी भाग ११ अंक ७-८।
प्रश्नपर एक दिगम्बर आचार्य द्वारा इस +आधुनिक रामनगर जो बरेलीसे प्रायः २० मोलके यह टीका बाराक जैन सिद्धान्तभवन में देवनागरी फासलेपर है।
अक्षरों में मौजूद है।
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