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________________ सेठ लालचन्दजी सेठीका भाषण । अपना वक्तव्य प्रकट करते हुए कहा-- उससे व्यापार और धार्मिक कामों में "व्यापारमें भी हम लोग बहुत पिछड़े हुए बहुत उन्नति हो सकेगी। हैं। सबसे पहले मैं उन भाइयों का जिक्र हमारे धनाढ्य भाइयोंको देशमें मिले करूँगा जो बेरोजगार हैं। ऐसे भाइयोंको इत्यादि कारखाने खोलकर अपनी और सहायता देकर रोजगारमें लगाना--इस देशकी उन्नति करनी चाहिए। तरफ भी हमारा ध्यान जाना चाहिए। हमारे भाइयों को चाहिए कि स्वदेशी इस मामले में मैं आप साहबोंको बहोरे वस्त्रोंका व्यवहार ज्यादेसे ज्यादे करें 'बिरादरीका अनुकरण करने की सलाह और स्वदेशी वस्त्र तथा अन्य स्वदेशी दूंगा।" वस्तुओका व्यवहार और व्यापार करके __ "क्या, छोटा' क्या बड़ा, कोई भी काम अपने लाभके साथ देशको भी लाभ पहुँ.. हमारा न्यायविरुद्ध नहीं होना चाहिए। चावे और देशोन्नतिमें सहायक हो। न्यायपूर्वक उपार्जित किया हुश्रा द्रव्य ही क्योंकि देशोन्नतिमें ही हमारी उन्नति हमारे समाजका, हितसाधन कर सकता पूर्णतया समाई हुई है।" है और धार्मिक कार्योको पूर्णतया सफल श्रीसम्मेद शिखरजीके झगड़े पर दुःख कर हमको पुण्यात्मा बना सकता है। प्रकट करते हुए आपने कहा-"हाय ! इसलिए अपने व्यापारमें हमको सत्य- जिस तीर्थसे हम अपना उद्धार कर सकते निष्ठ और निष्कपटतासे काम लेना चाहिए। हैं, उसीको हमने अपने डुबानेका साधन यदि हमारा व्यापार-व्यवहार, न्याय और बना लिया। जिसके नामसे हमारे भाव सचाईसे चले, तो हमको परलोक सुधा-- निर्मल होने चाहिये, जिसका नाम लेनेसे रनेके सिवा, इस लोकमें सफलता प्राप्त हम पवित्र होते हैं और जिसका माहात्म्य होगी। ऐसा न करनेसे ही हजारों रुपया हमारे शास्त्रों में यहाँतक लिखा है कि एक जो हमारा मुकद्दमे-मामलों में वृथा खर्च बार जो तनमनसे बन्दना कर ले, तो फिर हो जाता है--बहुत कम हो जायगा और नरक और तिर्यश्च गति नहीं पाता, शर्म हजारों दिक्कतोसे हम बचे रहेंगे। इसके है कि वही हमारे लिये अशान्तिका घर अलावा, यदि हम में आपसमें कोई झगड़ा हो-अफसोस ! जैन जातिके लिये इससे पड़े तो हम लोगोंको उचित है कि बढ़कर लांछनकी बात और क्या हो मापसमें ही फैसला कर ले। यह प्रथा सकती है ? मैं इसका उलाहना अपने हमारी बहुत पुरानी है। इसको फिर श्वेताम्बरी और दिगम्बरी दोनों भाइयोंकाममें लानेकी परमावश्यकता है। इतना को समान रूपसे दूँगा। जिस स्थानको. तो मैं प्राग्रह के साथ कहूँगा कि हमारे स्पर्शकर और जिसका पूजनकर हम मन्दिर आदिके धार्मिक झगड़े और बिरा- संसारसे पार उतरनेका भरोसा रखते दरी सम्बन्धी झगड़े तो किसी हालतमें हैं और जिसमें हमारा सांसारिक स्वार्थ भी अदालत में न जायँ और पञ्चायतों कुछ भी नहीं है, उसके लिये लड़ाई द्वारा तै हो, तो कहना ही क्या है। अगर क्यों ? अगर यह लड़ाई इसी तरह चलती पञ्चायतोंसे यह झगड़े तै न हो सके, तो रही, तो इसका दुष्परिणाम हमीको हमारी जातीय महासभाको बीचमें पड़ भोगना पड़ेगा और यह स्वयंसिद्ध बात कर तै करवा देना चाहिए। ऐसा करनेसे है कि दोकी लड़ाई में हमेशा तीसरा लामा जो हमारा समय और द्रव्य बचेगा, उठा ही जाता है । .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522887
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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