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________________ १०२ लन्दन के समान यहाँ भी उपयोगितावादियों की नज़र में चुभने लगेगी । कुछ ऐतिहासिक बातें । [ लेखक - पं० नाथूरामजी प्रेमी । ] १. - शाकटायन और पाल्यकीर्ति । जैनहितैषी भाग १२ अंक ७-८ में हमने 'शाकटायनाचार्य के सम्बन्ध में एक लेख प्रकाशित किया था और उसमें वादिराजसूरिका पार्श्वनाथचरित्रके नीचे लिखे श्लोकके आधारसे भी यह सिद्ध किया था कि शाकटायनका ही दूसरा नाम पाल्यकीर्ति था कुतस्त्या तस्य सा शक्ति: जैनहितैषी । पाल्य कीर्तेर्महौजसः । श्रीपदश्रवणं यस्य Jain Education International शब्दकान्कुरुते जनान् ॥ इसका अर्थ यह है कि उस महातेजस्वी पाल्य कीर्तिकी शक्तिका क्या वर्णन किया जाय जिसके श्रीपदके सुनते ही लोग शाब्दिक या व्याकरणश हो जाते हैं। इसपर विचार करते हुए हमने उस लेखमें लिखा था - "अमोघ वृत्तिका प्रारम्म 'श्रीवीरममृतं ज्योतिः' आदि मंगलाचरण से होता है। वादिराजसूरि इस मंगलाचरण के 'श्री' पदपर ही लक्ष्य करके कहते हैं कि पाल्यकीर्ति या शाकटायनके शब्दानुशासनका प्रारम्भ करते ही लोग वैयाकरण हो जाते हैं । अर्थात् जो इस व्याकरणका मंगलाचरण ही सुन पाते हैं वे इसे पढ़े बिना और वैयाकरण बने बिना नहीं रहते। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि उक्त 'श्रीवीरममृतं ज्योतिः' आदि श्लोकके अथवा श्रमोधवृत्तिके कर्त्ता भी पाल्यकीर्ति (शाकटायन) ही हैं ।" 1 [भाग १५ यद्यपि हमें इस विषय में जरा भी सन्देह नहीं था कि पाल्यकीर्ति और शाकटायन एक ही हैं और इसकी पुष्टिमें हमारे लेख में और भी कई प्रमाण दिये गये हैं, परन्तु अभी हाल हीमें हमें जो प्रमाण मिला है, उससे यह बात बिलकुल निर्विवाद हो जाती है । उक्त पार्श्वनाथचरित काव्यकी श्रीशुभचन्द्राचार्यकृत एक 'पंजिकाटीका' है जो यहाँके स्वर्गीय सेठ माणिकचन्द्रजीके ग्रन्थभण्डार में मौजूद है । श्लोक के पदोंका अर्थ इस प्रकार किया. है- “तस्य पाल्यकीर्तेः । महौजसः । श्रीपदश्रवणं । श्रिया उपलक्षितानि पदानि शाकटायनसूत्राणि तेषां श्रवणं श्राक`र्णनं ॥२५॥” इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्रीशुभचन्द्राचार्य भी पाल्यकीर्तिको शाकटायनसूत्रोंका कर्त्ता मानते थे और 'श्रीवीरममृतं ज्योति' श्रादि श्रमोधवृत्तिवाले मंगलाचरणके कर्त्ता भी उनके मतसे वे ही थे । २- सिद्धसेन के 'सम्मति-तर्क' पर दिगम्बराचार्यकृत टीका । पार्श्वनाथचरितके कर्त्ता वादिराजसूरिने प्राचीन कवियों को नमस्कार करते हुए लिखा है: नमः सन्मतये तस्मै भवकूप निपातिनां । सन्मतिर्विवृता येन सुखधामप्रवेशिनी ॥ २२ अर्थात् उस सम्मति नामक श्राचार्यको नमस्कार करता हूँ जिसने भवकूपमें पड़े हुए लोगोंके लिए सुखधाम में पहुँचानेवाली सन्मतिको विस्तृत किया, अर्थात् सन्मति नामक ग्रन्थ पर टीका लिखी । हमारी समझमें यह सन्मति ग्रन्थ और कोई नहीं, वही 'सम्मति' या 'सम्मति तर्क' या 'सम्मति प्रकरण' है जो श्राचार्य For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522887
Book TitleJain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1921
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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