Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 28
________________ [भाग १ साधारण जनताके लिए एकसे अधिक वारिक अवस्थायें ऐसी तेजीके साथ स्त्रियाँ रख सकना शक्य भी नहीं है; और बदल रही हैं, जनताके मानसिक क्षेत्रमें खंडेलवाल जातिकी तो यह दशा है कि ऐसी विलक्षण क्रान्ति मच रही है, अविउसमें लड़कियों की कमीके कारण हजारों वाहितोंकी संख्या इतनी बढ़ रही है, युवा-एक विवाह करनेका भी सुयोग नहीं स्त्रियोंके दुःखों और कष्टोंकी ओर शिक्षितोंपा रहे हैं, तब एकाधिक विवाह करना का हृदय इतना अधिक आकर्षित हो रहा तो सम्भव ही कैसे हो सकता है; और है, और स्त्रियाँ भी दिन पर दिन इतनी पाँचवें उनके मनमें रह रहकर यह प्रश्न अधिक सज्ञान होती जा रही हैं कि वह भी उठता है कि हम शास्त्रोंकी सभी बातें समय बहुत दूर नहीं जान पड़ता जब कि. मानकर कहाँ चलते हैं? यदि बहुविवाह विधवा विवाहकी प्रथा भी बहुसम्मतिसे शास्त्रसम्मत है तो असवर्ण विवाह, अन्य स्वीकार कर ली जायगी। जातीय विवाह, अन्य धर्मीय विवाह, बहुतोंके खयालमें इस प्रथाके प्रचलित गान्धर्व विवाह, मामाकी लड़कीके साथ होने में सबसे बड़ी बाधा शास्त्रविरोधविवाह, श्रादि भी तो शास्त्रनिषिद्ध नहीं की है; परन्तु हम इसे नहीं मानते । हमारे हैं। परन्तु हम इस प्रकारके विवाहोंको कहाँ खयालमें तो इस समय यदि कोई बड़ेसे पसन्द करते हैं-इन्हें भी तो हम बुरी बड़ा पण्डित किसी सर्वोपरि प्रामाणिक दृष्टिसे देखते हैं। इन्हीं सब कारणोंसे ग्रन्थकर्ताके इस तरहके स्पष्ट प्रमाण भी उक्त बहुविवाह-विरोधी प्रस्ताव बहु- जनताके सामने उपस्थित कर दे कि विधवा सम्मतिसे पास किया गया है; और जिन विवाह करना जायज़ है-धर्मसम्मत हैलोगोंके आँख है, वे इस बातको बड़ी तो भी दक्षिणकी सेतवाल चतुर्थ पंचम स्पष्टतासे देख रहे हैं कि जनता केवल आदि दो चार जैन जातियोंको छोड़कर , शास्त्रों के ही वचनोंको सिरपर रखकर अन्य जैन जातियाँ कदापि इस प्रथाको नहीं चलती, वह अपने दूसरे सुभीतोंका एकाएक स्वीकार नहीं करेंगी। वे उस भी खयाल रखती है । और शास्त्रकार इस शास्त्रको अप्रामाणिक भले ही न ठहरावे, पातका अनुभव कर चुके थे, इसी कारण और विधवा विवाहकोधर्मसम्मत भी मान उन्होंने भी प्रत्येक कार्य द्रव्य-क्षेत्र-कालादि- लें, तो भी वे यह कहकर छुटकारा का विचार करके करनेकी व्यवस्था दी है। पानेका रास्ता अवश्य निकाल लेगी कि यहाँपर प्रसङ्गवश हमको विधवा "यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं ना करणीयं विवाहकी प्रथा पर भी एक दृष्टि डाल ना चरणीयं" असवर्ण विवाह, मामाकी लेनी चाहिए । यद्यपि हमारा विश्वास है लड़की के साथ विवाह आदि शास्त्रसिद्ध कि अन्य विवाहों के समान विधवा विवाह बातोंको इसी तरह की बातें कहकर ही भी शास्त्रनिषिद्ध नहीं किया जा सकता, तो लोग टाल दिया करते हैं । हमारी. फिर भी यदि थोड़ी देरके लिए यही मान समझमें इस प्रथाके मार्गमें सबसे बड़ी लिया जाय कि यह निषिद्ध ही है, तो भी बाधा यही 'लोकविरुद्धता' की है। जब ऊपरके उदाहरणसे हमें यह मानना तक यह प्रथा लोकविरुद्ध बनी रहेगीपड़ेगा कि केवल शास्त्रनिषिद्ध होनेके 'लोक-लाजका हौत्रा'. लोगोंको डराता कारण ही किसी प्रथाको रोका नहीं जा रहेगा, तभीतक लोग इसे ग्रहण करने में सकता। हमारी सामाजिक और पारि- संकुचित होंगे। परन्तु यह लोकविरुद्धता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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