Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 29
________________ अङ्क ३-४] सेठ लालचन्दजी सेठीका भाषण । भी चिरजीविनी नहीं है।ज्यों ज्यों लोगोंकी आसानीके साथ उसकी नक्ल करवाकर मानसिक दुर्बलताये कम होंगी, 'मनःपूतं बहुत जल्दी उस जगह भेज दें। चूहे और समाचरेत्' के सिद्धान्तको लोग मानने दीमकके खाये खण्डित शास्त्रोंकी यथालगेंगे, समाजके अग्रस्थानीय सदाचारी शक्ति पूर्ति की जाय और फिर उनको धनी और विद्वान् लोग साहस करके इस छपवाकर सस्ते मूल्यमें उनका प्रचार प्रथाका अवलम्बन करना शुरू कर देंगे, किया जाय । हर्षकी बात है कि कुछ विधवा स्त्रियाँ और अविवाहित पुरुष सजनोंने इस काममें हाथ डाला है। यह समझने लगेंगे कि छिपकर महान् पाप फिलहाल मैं "माणिकचन्द्र संस्कृत ग्रन्थकरनेकी अपेक्षा खुलकर विवाह कर लेना माला" का काम तारीफके लायक कहूँगा। अच्छा है. त्यो त्यों इस प्रथाके मार्गकी समाजका फर्ज है कि इस ग्रन्थमालाको बाधायें आपसे श्राप हटने लगेगी और खूब सहायता देकर हमारे प्राचीन शास्त्र शास्रोके विरोध और अनुमोदनकी परवा स्वल्प मूल्यमें प्रकाशित करावे । इससें । किये बिना ही विधवा-विवाहकी प्रथा साहित्यका उद्धार होगा और हमारे चल निकलेगी। माणिकचन्द्रजीके स्मारकोंमें यह रत्न भी अपूर्व होगा क्योंकि उन्होंने जातिकी बहुत कुछ सेवा की है । इस ग्रन्थमालाका सेठ लालचन्दजी सेठीक सम्पादन भी सन्तोषजनक हो रहा है ।।. भाषणका कुछ सार भाग। "मुझे आशा है कि हिन्दी साहित्यकी . (गताङ्कसे आगे।) उन्नतिमें भी हमारे जैनियोंका अच्छा भाग 'भाइयो! सच समझिये कि अगर है। हमें चाहिए कि हम राष्ट्रभाषा हिन्दीआपको जैन-धर्मका अस्तित्व कायम रखना की उन्नतिके लिए खूब प्रयत्न करें और है, तो सबसे पहले आप जिनबाणीको किसीसे पीछे न रहें।" संभालिये; तभी आपका धर्म भी कायम "श्रीयुत बा० देवेन्द्रप्रसादजी जैन रहेगा। जाति और भाषाका बहुत गहरा आरासे अँगरेजीमें जैन ग्रन्थोंका उल्था सम्बन्ध है। इतिहास हमें बता रहा है निकालनेका बहुत प्रशंसनीय कार्य कर कि निजका साहित्य नष्ट होनेसे बड़े बड़े रहे हैं।" देश गारत हो गये। फिर एक कौमका . "हस्तलिखित ग्रन्थ तो मिलना दुश्वार तो कहना ही क्या है ! मैं अपने भाइयोंसे है, मगर उस छापेका प्रचार करनेवाले जोरकी अपील करूँगा कि पुराने भंडारों- विज्ञानीको अनेक धन्यवाद है जिसकी को खुलवाकर सारे शास्त्रोको बाहर लाया कृपासे हमें छपे ग्रन्थ श्रासानीसे और जाय, उनको तरतीबवार रक्खा जाय, कम कीमतमें मिल जाते हैं। फिर ज्ञानउनकी सूची बनाई जाय, उनकी बराबर सम्पादन करनेसे वञ्चित रहना सिर्फ सम्हाल रक्खी जाय, उनकी वृद्धिकी हमारा दोष है, हमारी भूल है। तरफ खूब ध्यान रहे और वे हमारे भाइयों- मेरे खयालसे हस्तलिखित ग्रन्थों के को बे-रोकटोक खूब स्वाध्यायके लिए साथ एक एक प्रति छपे ग्रन्थोंकी भी दिये जावें। एक जगहके शास्त्रकी दूसरी पुस्तकालयोंमें रखनी चाहिए और यो जगह जरूरत हो तो हमारे भाई बहुत साहित्यको तरोताजा रखनेमें जरा भी. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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