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अङ्क ३-४ ]
इसके बाद सूत्रपाठ शुरू हो गया है। पहले पत्रके ऊपर मार्जिनमें एक टिप्पणी इस प्रकार दी है जिसमें पाणिनि आदि व्याकरणोंको अप्रामाणिक ठहराया है।
जैनेन्द्र व्याकरण और श्राचार्य देवनन्दी ।
" प्रमाणपदव्यामुपेक्षणीयानि पाणिन्यादिप्रणीत सूत्राणि स्यात्कारवादित्र दूर त्वात्परिव्राजकादिभाषितवत् । अप्रमाणानि व कपोकल्पनामलिनानि हीनमातृकत्वातद्वदेव ।”
इसके बाद प्रत्येक पादके अन्त और आदि में इस प्रकार लिखा है जिससे इस सूत्र पाठके भगवत्प्रणीत होनेमें कोई सन्देह बाकी न रह जाय
"इति भगवद्वाग्वादिन्यां प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः । अनमः पार्श्वाय । स भगवानिदं प्राह ।"
सर्वत्र 'नमः पावय' लिखना भी हेतुपूर्वक है । जब ग्रन्थकर्ता स्वयं महावीर भगवान् हैं तब उनके ग्रन्थमें उनसे पहले के तीर्थंकर पार्श्वनाथको ही नमस्कार किया जा सकता है । देखिए कितनी दूरतकका विचार किया गया है ।
आगे अध्याय २ पाद २ के 'सहवह् चल्यापतेरि:' (६४) सूत्रपर निम्न प्रकार टिप्पणी है और इससे सिद्ध किया है कि यदि यह व्याकरण भगवत्कृत न हो तो फिर सिद्ध हैम के अमुक सूत्रकी उपपत्ति नहीं बैठ सकती ! -
" इदं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेव भवति । 'सहवचल्यपतेरिधानकृसृजन्नमेः किर्लिट् चवत् - ङौ सासहिवावहिचाचलि - पापति, सस्त्रिचाक्रिदधिजज्ञिनेमीति सिद्धहैमसूत्रस्याऽन्याथानुपपत्तेः । सर्ववर्मपाणि न्योस्तु 'आहवर्णोपधालोपिनां किद्वेच १, आहगसहनजनः किकिनौ लिट चेति २ |
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इसके बाद ३-२-२२ सूत्र पर इस प्रकार टिप्पणी दी है" कथं न अच: प्राग्भरतेष्यादि । क्षेत्रादिनियापि शिक्षा विशेषाः । कुमारशब्दः प्राच्यामाश्विनं मासमूविवान् । मैथुनं तु भिषक्तंत्रे वाचकं मधुसर्पिषः ॥ इत्याद्यन्यथानुपपत्तरिति बोटिक तिमिरोप
लक्षणम् । इसके बाद ३-४-४२ सूत्र ( स्तेयाइत्यं) पर फिर एक टिप्पणी है। देखिए -
“इदं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेव भवति । अर्हतस्तोन्त च १, सहाद्वा २, साखिवणगदूताद्यः ३, स्तेनान्नलुकू च ४, ति सिद्ध हैमसूत्रान्यथानुपपत्तेः । पाणिन्यादौ त्वात्यशदं प्रति सूत्राभावात् कथं सरस्वतीकंठाभरणं तदाप्तिः ? ऐन्द्रानुसारादतशब्दतश्चेति पश्य ।"
फिर ३-४-४० सूत्र ( रात्रेः प्रभा चन्द्रस्य ) पर एक टिप्पणी है। इसमें बौटिक या दिगम्बरियोंका सत्कार किया गया है
"इदं शब्दानुशासनं भगवत्कर्तृकमेच भवति । रात्रेः प्रभाचन्द्रस्य सूत्रस्य प्रक्षेपता स्फुटत्वात् । अतो *बौटिकतिमिरोपलक्षणे देवमन्दिमतां मोहः
प्रक्षेपरजसापि चेत् । चिराय भवता रात्रेः
प्रभाचन्द्रस्य जीव्यतां ॥ पंचोत्तरः कः स्वचानासी: प्रभेदो न यस्य य: ( ? ) ।
१ यह 'नौटिकमततिमिसेपलक्षण' नामक कोई ग्रन्थ है और सम्भवतः इसी वाग्वादिनी के कर्ताका बनाया हुआ होगा। इसका पता लगानेकी बड़ी जरूरत है। इससे दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायसम्बन्धी अनेक बातों पर प्रकाश पड़ेगा।
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