Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 57
________________ भई ३-४ विविध विषय। ११४ । ब्रह्मचारीजीका यह लिखना कितना भूल- परन्तु इन सब सभाओंकी आज्ञाओंको से भरा हुआ है और उनका कितना जैन पत्रोंके सम्पादक लोग नहीं मानते। वे भोलापन प्रकट करता है। वे स्वयं भी प्रायः सभी इन पत्रोंको बराबर पढ़ा करते उक्त प्रस्ताव परसे उसका अच्छा अनु- हैं, और इसलिए उन्हें इनका बहिष्कार भव कर सकते हैं। शायद उन्हें अपने स्वीकार नहीं है। कितने ही पत्र-सम्पाउस प्रस्तावका ही खयाल हो जो केवल दक इन पत्रोंके कुछ लेखोंपर टीकासत्योदय और जाति-प्रबोधकके सम्बन्धमें टिप्पण भी किया करते हैं जिससे उनके उनके सभापतित्वमें पास हुश्रा था और पाठकोंका यह फर्ज़ (कर्तव्य) हो जाता है जिसपर हम अपने विस्तृत विचार जैन- कि वे उन टीका-टिप्पणोंकी जाँचके लिए हितैषी में प्रकट कर चुके हैं। उस प्रस्तावके इन बहिष्कृत पत्रोंके लेखोंको भी देखें बहिरंगमें, यद्यपि 'बहिष्कार' शब्द नहीं जिनपर टीका-टिप्पण किया गया है और था परन्तु वह उसके अन्तरंगमें जरूर इसलिए उन्हें ऐसे (बहिष्कृत) पत्रोंके मौजूद था और इसलिए थोड़े ही दिनोंके उन अंकोंको मँगाना पड़ता है, जिनमें वे बाद वह उक्त प्रस्तावके रूपमें प्रकट हो विवादग्रस्त लेख होते हैं. और उन्हें गयो । आशा है, ब्रह्मचारीजी इसपरसे पढ़ना पड़ता है। ऐसी हालतमें बहिष्कारअपनी भूलको सुधारनेकी कृपा करेंगे। का कुछ भी अर्थ नहीं रहता; सभी जैनऔर चूँकि आपको इन पत्रोंका बहिष्कार पत्रोंके विचारशील पाठकों के पढ़ने में ये इष्ट नहीं है, इसलिए आप उदारताके (बहिष्कृत) पत्र आ जाते हैं। साथ खुले शब्दोंमें अपने मन्तव्यानुसार नीचे हम कुछ ऐसे पत्रों का परिचय जैनमित्रमें यह उद्घोषित करेंगे कि “इन अपने पाठकों को कराते हैं जिनके सम्पापत्रोंको पढ़ना ज़रूर चाहिए, परन्तु पढ़ते त दकोंको यह बहिष्कार स्वीकार नहीं हैसमय यह खयाल रखना चाहिए कि ये जैन पत्र नहीं हैं।" १ हिन्दी जैनगजट-इस पत्रकेसम्पा दक, पं० रघुनाथदासजी 'सत्योदय के .४-जैन पत्र-संपादकोंको बहिष्कार लेखोंपर बराबर अपने विचार लिखा करते हैं। हाल हीमें ३ जनवरीके अंकमें . स्वीकार नहीं। भी आपने 'ज्योतिषचक्र वा खगोल विद्या' शीर्षकके नीचे सत्योदयके एक लेख पर कलकत्तेकी दिगम्बर जैन सभाने अपने विचार प्रकट किये हैं। जैनहितैषी'सत्योदय' और 'जैनहितैषी' आदि कुछ पर भी आपकी कृपा बनी रहती है, पद्मापत्रोंका बहिष्कार किया था और पंचा- वती पुरवालके गतांक नं. ७ में आपने यतोके नाम आज्ञाएँ तक जारी की थी कि उसके दो नोटोंपर दो लेख प्रकाशित कोई भी भाई इन पत्रोंको न पढ़े और कराये हैं । जैनहितैषीके और भी कुछ न खरीदे। हालमें दि० जैन खंडेलवाल लेखोंपर आपकी टिप्पणियाँ निकली हैं। महासभाने भी इन पत्रोंके बहिष्कारका इससे आप इन दोनोंको पढ़ते हैं और प्रस्ताव पास किया है । और भी कुछ आपने इनका बहिष्कार नहीं किया, यह लोकल सभाएँ, एक दूसरेकी देखादेखी, साफ जाहिर है । यह दूसरी बात है कि इस किसमके प्रस्ताव पास कर चुकी हैं। आप शब्दों द्वारा बहिष्कारका अनुमोदन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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