________________
२२६
भाग १ पंडित लोग कैसे मान सकते हैं ? आप देता है। जिनकी ऐसी विलक्षण भावनाएँ उन्हें दिगम्बर जैनियोंकी ही सेवाका कुछ हो उन्हें देशसेवाके लिए प्रेरित करके उपदेश दीजिए, शायद वे उसे मान जायें! आप कहाँतक सफल हो सकेंगे, इसे खुद परन्तु आजकल तो वे असहयोगमें आ रहे सोच लीजिए। आप उन्हें देशसेवाकी हैं और महात्मा गांधीके असहयोगसे भी जगह 'देशकी करणा' अथवा 'देशपर उनके असहयोगका नम्बर बढ़ा हुआ है ! दया' करनेके लिए कहिए । शायद वे इन महात्मा गांधी तो सरकारसे ही असह- शब्दोंके कारण ही आपकी कुछ बात सुन योग करनेको कहते हैं और आपसमें ले और देशके कामोंमें कुछ योग देने सहयोगकी यहाँतक उत्तेजना दे रहे हैं लगें । परन्तु हमें तो उनसे ऐसी कुछ भी कि अन्त्यजों और अछूतोंके साथ भी आशा नहीं है। देश चाहे रसातलको सहयोग करना सिखलाते हैं और उन्हें चला जाय-गलामोसे भी परे गलाम घृणाकी दृष्टिसे देखनेका निषेध करते हैं। बन जाय, जैनजाति अपने सर्वाधिकारोंसे परन्तु जैन पंडित अापसमें भी असह- वञ्चित हो जाय और चाहे देशभरकी योगकी शिक्षा दे रहे हैं ! वे अपने जातीय सहानुभूति खो बैठे; परन्तु इससे उन्हें भाइयों और जातीय पत्रोंका बहिष्कार क्या ? वे तो धर्मके ठेकेदार बने बैठे हैं, कर रहे हैं। इतना ही नहीं, बल्कि यदि उनकी उस ठेकेदारीमें फरक न आना कोई भाई 'जाति और धर्मकी सेवाका चाहिए ! * .. कोई काम कर रहा हो-जैसे कि ऐति
११-चलते फिरते मकान । हासिक काम या दुष्प्राप्य और अलभ्य जैन ग्रन्थोंकी खोज जैसा निर्दोष काम- जबलपुरकी 'हितकारिणी' सूचित तो ये लोग उसमें भी सहायता देना करती है कि 'इङ्गलैंडमें एक बड़ी इमारत : पसन्द नहीं करते ! यही वजह है कि ऐसे एक स्थानसे दूसरे स्थानको उठाकर भेज किसी पंडितने जैनहितैषीको उसके इन दी गई है। यह इमारत ६०. फुट लम्बी कामों में बहुत कुछ प्रार्थना और प्रेरणा और उतनी ही चौड़ी है; लकड़ी, मिट्टी करनेपर भी कोई सहायता नहीं दी। और चूनेके मेलसे बनी है और उसका इससे आप समझ सकते हैं कि ये लोग वजन १५० टन है । इमारत जमीनपर अपने वर्तमान अनुदार विचारोंकी हालत- नहीं किन्तु लोहेके दासेपर, जिसमें चक्र में देशसेवा तो क्या, अपने दिगम्बर लगे हुए थे, खड़ी की गई थी। इसमें एक भाइयोंकी सेवाके लिए भी कहाँतक प्रस्तुत दफ्तर है जिसका काम इमारतको खींचहो सकते हैं।
कर ले जाते समय बराबर जारी रहा ____ हाँ, एक बात और भी ध्यानमें रखिये। और उसमें टेलीफोन भी वैसे ही लगा वह यह कि 'सेवा' शब्द तो बहुत बड़ा रहा ।' अभीतक मकानात स्थावर है । वह तो अपने पूज्योंके लिए ही व्यवहृत किया जाता है, जैसे देवकी सेवा
*समाजमें कितने ही पण्डित ऐसे हैं जिनसे यह नोट और गुरुकी सेवा। सम्यग्दृष्टि तो अपने
प्रायः सम्बन्ध नहीं रखता, न उनके वैसे दकियानूसी मिथ्यादृष्टि मातापिताओंकी भी सेवा विचार हैं जिनका इस नोटमें इशारा है। इसलिए उन्हें नहीं किया करता (१), उनपर करुणा इसपरसे जरा भी असन्तुष्ट होनेकी जरूरत नहीं है। . अथवा दया करके कुछ काम जरूर कर ......... ............. -सम्पादक।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org