Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 63
________________ RECENTREAMPIE D विविध विषय। जाता है । इसमें खर्च भी बहुत होता है। कि-"एक दफे पण्डित धन्नालालजी इससे साँसमें बदबू आने लगती है, दाँत (इस सभाका) विरोध कर चुके थे, इसमैले हो जाते हैं और कैसरे (कीड़े) पैदा लिए उन्हें अपनी बात रखनेको फिर भी हो जाते हैं। यह एक बड़ी गन्दी आदत विरोध करनेके लिए पं० देवकीनन्दनजीहै। किसी प्रादमीको यह अधिकार नहीं को भेजना पड़ा जिन्होंने इस प्रान्तमें है कि सिगरेटके साथ मेरे नामका संयोग आने जानेवाले मुखिया सेठ चैनसुख करे । मैं उस अज्ञात कारखानेको धन्य- छावड़ा तथा सिंहई कुँवरसेन सिवनीको वाद दूंगा यदि वह बाज़ारोंसे इस किस्मके अपनी सम्मतिमें गाँठकर सर्व अन्य सिगरेट हटा ले, अन्यथा जनता ऐसे मण्डलीको सभामें आनेसे रोका।" इसके सिगरेटोंका प्रयोग करना छोड़ देगी।" बाद श्राप जैनियोंमें देशसेवाके भावको महात्मा गांधी जैसे पूज्य और पवित्र जागृत करनेके लिए इस सभाकी बहुत नामके साथ सिगरेट जैसी अपवित्र और बड़ी आवश्यकता बतलाते, उपयोगिता हानिकर वस्तुका नाम जोड़ना और दशाते और सभाके उद्देश्यों तथा अधिसाथ ही उनका चित्र भी उसके पैकटों वेशनके कार्योंकी प्रशंसा करते हुए लिखते पर छापना, निःसन्देह, बड़ी ही धृष्टताका हैं कि-"ऐसी दशामें भी विरोध करना कार्य है। जो लोग महात्मा गान्धीका व शामिल न होना इस कार्ररवाईसे जैनमान करते हैं उन्हें चाहिए कि वे ऐसे जातिको देशसेवासे दूर ले जानेका दोष सिगरेटोका कदापि व्यवहार न करें। सम्पादन करना है।" और अन्तमें ब्रह्मबल्कि, बन सके तो उन्हें तम्बाकू पीना। चारीजीने पं० धन्नालालजी और उनके भी छोड़ देना चाहिए जिसे महात्माजी अनुयायियोंको ऐसी सभाओंमें शामिल इतना बुरा समझते हैं। होकर देशसेवाके कामोंमें भाग लेनेकी अनेक प्रकारसे प्रेरणा की है। परन्तु १०-देशसेवा और जैन पण्डित । हमारी रायमें ब्रह्मचारीजी ऐसे दकिया नूसी ख़यालके जैन पण्डितोंके साथ देशदेशसेवाके कामों में भाग लेनेके लिए सेवाकी बातें करते हुए भूलते हैं। शायद · कुछ असेंसे 'जैन पोलिटिकल कॉन्फ्रेन्स' उन्हें इस बातका ख़याल नहीं है कि नामकी एक सभा स्थापित है । गत दिस- .. भारतवर्ष में तेंतीस करोड़ मनुष्योंका म्बर मासमें कांग्रेसके अवसरपर, नाग- वास है और उनमें ये पण्डित लोग पुरमें, इसका चतुर्थ अधिवेशन सेठ पद्म- ज्यादासे ज्यादा तीन चार लाख दिगम्बर राजजीरानीवालोंके सभापतित्वमें सानन्द जैनियोको ही सम्यग्दृष्टि मान सकते हैं, हो गया। ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी, देशके बाकी सब लोग उनकी समझमें अपने पत्र में इस अधिवेशनका कुछ विव- मिथ्यादृष्टि हैं। तब, देशकी सेवा करना रण देते हुए, इस बातपर दुःख प्रकाशित मिथ्याष्टियोंकी सेवा करना है और करते हैं कि सभामें पण्डित लोग और मिथ्यादृष्टियोकी सेवासे मिथ्यात्वके उनके अनुयायी दूसरे सेठ आदिक नहीं अनुमोदन तथा अभिनन्दनका दोष आये, जिन सबमें देशसेवाका भाव जागृत लगता है जो उन्हें कभी इष्ट नहीं हो करनेके लिए यह सब प्रयत्न किया गया सकता ! फिर भला आपकी देशसेवाकी । था, और उसका कारण यह बतलाते हैं बातको ये पुराने दकियानूसी खयालके - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68