Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 59
________________ विविध विषय | अङ्क ३-४ ] और जो समाज के एक प्रकार के नेता होते हैं, तब फिर उनके पाठकोंको ही वह कैसे स्वीकार हो सकता है और वे कैसे उसको स्वीकार करनेके लिए बाध्य किये जा सकते हैं - कम से कम टीका टिप्पणि होनेपर उन्हें इन पत्रको देखना अवश्य चाहिए। यह नहीं हो सकता कि एक तरफ तो विचारनेके लिए कहा जाय और दूसरी तरफ विचारका दर्वाजा अथवा मार्ग बन्द कर दिया जाय। ऐसी हालत बहिष्कारका यह सब श्रायोजन बिलकुल थोथा और निःसार जान पड़ता है। यही वजह है कि पत्रसम्पादकों तथा दूसरे विद्वानोंने-कितने ही ऐसे विद्वानों ने भी जो बहिष्कार के प्रस्तावका अनुमोदन अथवा समर्थन कर चुके हैं—उसे ग्रहण नहीं किया। हमारे खयालमें जो लोग इस बहिष्कारके पक्षपाती हैं—उसका अनुमोदन और समर्थन करते हैं— उन्हें स्वयं अपने विषयमें प्रामाणिक होना चाहिए और तब दूसरोंको उसपर श्रमल करनेके लिए कहना चाहिए। श्रन्यथा खुले दिलसे इस घातक नीतिका विरोध करना चाहिए और सबको स्वतन्त्रताके साथ विचारने तथा समझनेका अवसर देना चाहिए । ५- प्राकृत भाषाको उत्तेजन । गत दिसम्बर मासमें स्याद्वाद महाविद्यालय, काशीका वार्षिकोत्सव प्रो० ध्रुवके सभापतित्वमें सानन्द समाप्त हो गया। ध्रुव महाशयका व्याख्यान बहुत कुछ महत्वपूर्ण हुआ । इस अवसर पर हमारे मित्र श्रीयुत पं० नाथूरामजी प्रेमी भी पधारे थे । आपका भी देरतक महत्वपूर्ण व्याख्यान हुआ और उसमें आपने विद्यार्थियोंको अनेक अच्छी और उपयोगी - Jain Education International १२१ शिक्षाएँ दी । श्रापने विद्यार्थियोंको प्राकृत भाषा पढ़ने की खास तौर से प्रेरणा की और न केवल प्रेरणा ही की बल्कि १०१) रुपयेका पारितोषिक, अपनी दुकानकी ओोरसे, उस विद्यार्थीको देना स्वीकार किया जो प्राकृत भाषा पढ़कर उसमें उसीर्णता प्राप्त करे । प्रेमीजीका यह कार्य निःसन्देह प्रशंसनीय है जो उन्होंने दिगम्बरोंमें प्राकृत भाषा के अध्ययनको इस तरहपर उत्तेजन देना प्रारम्भ किया है । दिगम्बर समाजमें प्राकृत भाषाका ज्ञान प्रायः लुप्त हो गया है और उसके अधिकांश विद्वान् संस्कृत टीकाओंके सहारेले ही प्राकृत ग्रन्थोंसे काम ले रहे हैं। इसलिए समाजमें नियमानुसार प्राकृत भाषा की शिक्षाकी बड़ी जरूरत है जिससे प्राकृतके मूल ग्रन्थोंका मूलपरसे ही अध्ययन करके उनका विशेष रसास्वादन हो सके । दिगम्बरोंको अपने श्वेताम्बर भाइयों की तरह इस विषय की ओर खास तौर से ध्यान देना चाहिए । ६- ब्रह्मचारीजीकी जैनगज़ट के सम्पादकको सूचना । ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने, हिन्दी जैनगजटके किसी लेखको लक्ष्य करके उसके सम्पादकके नाम, जो सूचना जैनमित्रकेतांक नं० = में, निकाली है वह इस प्रकार है। : "यदि जैनगजट के सम्पादक यह चाहते हो कि कोई भी व्यक्ति जो विधवा विवाहकी तरफ हो उसे दि० जैनसमाजसे निकाल देना चाहिए तो उन्हें दिगम्बर जैनसमाजकी शुद्धि करनी पड़ेगी । सैतवाल व चतुर्थ जातिमें व शायद पंचममें भी जिनकी संख्या दिगम्बरोंमें एक डेढ़ लाख होगी, विधवाविवाह कराते हैं तथा For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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