Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 43
________________ अङ्क ३-४ ] जैनेन्द्र व्याकरण और प्राचार्य देवनन्दी। १०५ अर्थात जैसी कीर्ति विमलांक (पउम. के मोहमें बहनेवाले लेखक किस तरह चरिय) ने पाई, वैसी विमल कीर्ति कौन तिलका ताड़ बनाते हैं। पा सकता है जिसकी प्राकृत अमृतमयी इस चरितको चन्द्रय्य नामक कविऔर सरस है। ने दुःषम कालके परिधावी संवत्सरकी ____ यह प्रायः निश्चित है कि पद्मपुराण आश्विन शुक्ल ५, शुक्रवार, तुलालग्नमें विमलसूरिके प्राकृत पउमचरियका ही समाप्त किया है । यह कवि कर्नाटक देशकुछ विस्तृत संस्कृत अनुवाद है और के मलयनगरकी 'ब्राह्मणगली' का रहनेउद्योतनसूरिको इन दोनों ही ग्रन्थोंका वाला था । वत्सगोत्री और सूर्यवंशी परिचय था। ऐसी दशामें उन्हें यह भी ब्राह्मण बम्मणाके दो पुत्र हुए, सातप्पा मालूम होगा कि पउमचरियका ही विस्तृत हुब्ब ब्रह्मरस और विजयप्पा। विजयप्पाअनुवाद रविषेणका पद्मचरित (पद्म- के ब्रह्मरस और ब्रह्मरसके देवप्पा हुआ। पुराण) है। शायद इसी लिए उन्होंने इसी देवप्पाकी कुसुमम्मा नामक पुत्रीसे 'वरंग-पउमाण-चरिय वित्थारे' पदमें कवि चन्द्रय्यका जन्म हुआ था। 'वित्थार'शब्द देकर यह व्यक्त किया है कि "कर्नाटक देशके 'कोले' नामक ग्रामपद्मचरित पउमचरियका ही विस्तार है। के माधवभट्ट नामक ब्राह्मण और श्रीदेवी ब्राह्मणीसे पूज्यपादका जन्म हश्रा। ज्यो तिषियोंने बालकको त्रिलोकपूज्य बतजैनेन्द्र व्याकरण और लाया, इस कारण उसका नाम पूज्यपाद आचार्य देवनन्दी। रक्खा गया। माधवभट्टने अपनी स्त्रीके कहनेसे जैनधर्म स्वीकार कर लिया । [ लेखक-श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी।] भट्टजीके सालेका नाम पाणिनि था। उसे (गताङ्कसे आगे।) भी उन्होंने जैनी बननेको कहा; परन्तु पूज्यपाद-चरित्र । प्रतिष्ठाके खयालसे वह जैनी न होकर - अन्य बड़े बड़े प्राचार्योंके समान मुडीगुंडग्राममें वैष्णव संन्यासी हो गया। पूज्यपादकी जीवनसम्बन्धी घटनाओंसे पूज्पपादकी कमलिनी नामक छोटी बहिन भी हम अपरिचित हैं। उनके जाननेका हुई, वह गुणभट्टको ब्याही गई । गुणभट्टकोई साधन भी नहीं है। सिवाय इसके को उससे नागार्जुन नामक पुत्र हुश्रा। कि वे एक समर्थ प्राचार्य थे और हमारे पूज्यपादने एक बगीचे में एक साँपके उपकारके लिए अनेक ग्रन्थ बनाकर रख मुँहमें फँसे हुए मेडकको देखा। इससे गये हैं, उनका कोई इतिहास नहीं है। उन्हें वैराग्य हो गया और वे जैन साधु आगे हम कनड़ी भाषाके एक पूज्यपाद बन गये। चरितका सारांश देते हैं, जिससे उन पाणिनि अपना व्याकरण रच रहे लोगोंका मनोरञ्जन अवश्य होगा, जो थे। वह पूरा न होने पाया था कि उन्होंने अपने प्रत्येक महापुरुषका जीवनचरित- अपना मरणकाल निकट पाया जान चाहे वह कैसा ही हो-पढ़नेके लिए लिया। इससे उन्होंने पूज्यपादसे जाकर उत्कण्ठित रहते हैं। विद्वान् पाठक इससे कहा कि इसे श्राप पूरा कर दीजिए । यह समझ सकेंगे कि सत्यताकी जरा भी उन्होंने पूरा करना स्वीकार कर लिया। परवा न करमेवाले और साम्प्रदायिकता- पाणिनि दुर्ध्यानषश मरकर सर्प हुए । Jain Education International & For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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