Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 42
________________ १०४ जैनहितैषी। [ भाग १५ सदावदातमहिमा सदाध्यानपरायणः।। का फुटकर उपदेश है । माणिकचन्द्रसिद्धसेनमुनिजायाट्टारक पदेश्वरः ॥३॥ ग्रन्थमालामें इस ग्रन्थके प्रकाशित करनेस्वामिसमन्तभद्रो मे का विचार हो रहा है। . हनसे (ऽहर्निशं) मानसेऽनघः। ४-रविषेणका वरांगचरित । तिष्ठताजिनराजोद्य आचार्य रविषेणका इस समय केवल . च्छाशनाम्बुधि चन्द्रमा ॥४॥ पद्मचरित (पद्मपुराण) नामक ग्रन्थ ही इसके तीसरे श्लोकमें सिद्धसेन श्रा- उपलब्ध है; परन्तु हरिवंशपुराणके प्रारम्भचार्यका भी उल्लेख किया गया है। यदि के नीचे लिखे श्लोकोसे मालूम होता है सचमुच ही यह ग्रन्थ शिवकोटिका है, कि 'वरांगचरित' नामका ग्रन्थ भी उनका तो कहना होगा कि सिद्धसेनके सम्बन्धमें बनाया हुआ था। वे श्लोक ये हैं:आदिपुराण और हरिवंशपुराणके सिवाय कृतपद्मोदयोद्योता प्रत्यहं परिवर्तिता । यह तीसरा प्राचीन उल्लेख है । यह उसी मूर्तिकाव्यमयीलोके रवेरिव रवः प्रिया॥३४ समयका उल्लेख है जब कि सिद्धसेन- वरांगनेव सर्वागैर्वरांगचरितार्थवाक् । . सरिक ग्रन्थोंका हमारे यहाँ प्रचार था। कस्य नोत्पादयेद्गाढ मनुरागं स्वगोचरम् ॥३५ प्रन्थके अन्तमें नीचे लिखा श्लोक है: श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उद्योतनसूरि यो नित्यं पठति श्रीमान् नागके एक प्रसिद्ध विद्वान् हो गये हैं। रत्नमालामिमांपरां। . उन्होंने 'कुवलयमाला' नामका प्राकृत स शुद्धभावनो नूनं ग्रन्थ शक संवत् ७०० में बनाकर समाप्त - शिवकोटित्वमाप्नुयात् ॥६७॥ किया है । उस ग्रन्थमें प्राचीन कवियोंकी इसका नीचे लिखा श्लोक विशेष प्रशंसा करते हुए आचार्य रविषेण और । ध्यान देने योग्य है; क्योंकि बिलकुल उनके पद्मपुराण और वरांगचरित प्रन्योंइसी प्रकारका श्लोक यशस्तिलक* चम्पू. का भी उल्लेख किया गया है:· में भी पाया है।। जेहिं कए रमणिज्जे सर्वमेवविधि नः वरंग-पउमाणचरिय वित्थारे । प्रमाणं लौकिकस्सतां । कह व ण सलाहणिज्जे ते कइणो जडिय रविसेणो । - यत्र न व्रत हानिः अर्थात् जिन्होंने रमणीय.वरांगचरित यात्सम्यक्त्वस्य च खण्डनं ।।६६।। और पनचरितका विस्तार किया, वे ग्रन्थमें सम्यक्त्क, अणुवत, गुणवत, रविषेण कवि किसके द्वारा श्लाघनीय या शिक्षावत, मूलगुण, प्रतिमा, आदि बातों सराहना किये जाने योग्य नहीं हैं। यत्र सम्यत्क्वहानिर्न यत्र न व्रत दूषणं । इसी ग्रन्थमें प्राकृत पउमचरिय (पनसर्व एव हि नानां प्रमाणं लौकिको विधिः । यश। चरित) के कर्त्ता विमलसूरिका उल्लेख है: च ब्रिह्मसूरिके प्रतिष्ठातिलक नामक त्र वणिकाचार ग्रन्थमें जारासियं विमलंको विमलं भी इसी आशयका निम्न भोक पाया जाता है: को तारिसं लहइ अत्थं। सर्वो ऽपि लौकिकाचारी जैनानामविगहिंतः। यत्र दर्शनहानिर्न यन व्रतदूषणम् ॥ अमयमइयं च सरसं . सम्पादक। सरसंचिय पाइयं जस्स ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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