Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 41
________________ अङ्क ३-४ ] सिद्धसेनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है और जिसपर श्वेताम्बराचार्य मलवादि और अभयदेव सूरिकी टीकायें हैं। इस उल्लेखसे जान पड़ता है कि दिगम्बर ग्रन्थकारोंमें उस समयतक सिद्धसेनके ग्रन्थोंका प्रचार था और इतना था कि उन्होंने उनपर टीकार्ये भी लिखी थीं. इसी लिए तो हरिवंशपुराणके कर्त्ता और श्रादिपुराणके कर्त्ताने उनकी अतिशय प्रशंसा की है और उन्हें महान् तार्किक बतलाया है । पार्श्वनाथचरितके इस उल्लेखसे यह भी सिद्ध हो जाता है कि हमारे ग्रन्थों में जिन सिद्धसेनका उल्लेख मिलता है वे और श्वेताम्बरोंमें जिन सिद्धसेन दिवाकर के ग्रन्थोंका प्रचार है वे दोनों एक ही हैंश्रवणवेल्गोलकी मल्लिषेण प्रशस्ति में सुमतिदेव नामक एक श्राचार्यका उल्लेख है जिन्होंने 'सुमतिसप्तक' नामका कोई ग्रन्थ बनाया था:-- कुछ ऐतिहासिक बातें । सुमतिदेवममुं स्तुत येन वः सुमतिसप्तकमाप्ततया कृतम् । परिहृतापदतत्त्वपदार्थिनां सुमतिकोटिविवर्ति भवर्तिहृत् ॥ जान पड़ता है, ये 'सुमतिदेव' और 'सम्मति टीकाके कर्त्ता 'सन्मति' एक ही होंगे । 'सन्मति' और 'सुमति' प्रायः एकार्थवाची शब्द हैं और कविगण अकसर नामोंमें भी पर्यायवाची शब्दका प्रयोग कर दिया करते हैं, जैसे 'देवसेन और 'सुरसेन' लिखा है । सम्मतिकी टीकाके कर्त्ताका नाम एक कविके लिए 'सुमति' की जगह 'सन्मति' लिखना ही विशेष श्राकर्षणीय मालूम होगा । श्रतः वादिराजने उन्हें सुमतिदेव न लिखकर 'सन्मति ही लिखा जान पड़ता है । यदि हमारा यह अनुमान ठीक है तो सुमतिदेवके बनाये हुए दो ग्रन्थ होने Jain Education International १०३ चाहिएँ- - एक 'सम्मति विवरण' और दूसरा 'सुमतिसप्तक' । ये दोनों ही ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं। इनका पता लगाना चाहिए । ३ - शिवकोटिकी 'रत्नमाला' । श्राचार्य जिनसेनने आदिपुराणके प्रारम्भमें 'शिव कोटि' नामके एक प्राचार्यका स्मरण किया है; और उनके उल्लेखसे मालूम होता है कि सुप्रसिद्ध प्राकृत ग्रन्थ 'भगवती आराधना' के वे कर्त्ता थेशीतीभूतं जगद्यस्य वाचाराध्यचतुष्टयं । मोक्षमार्ग स पायान्नः शिव कोटिर्मुनीश्वरः ॥ स्वयं 'भगवती श्राराधना' ग्रन्थमें उनका नाम 'शिवार्य' दिया है । संभवतः 'शिवार्य' और 'शिवकोटि' एक ही कर्त्ताके नामके नामान्तर हैं। यद्यपि हस्तिमल्लकृत विक्रान्त कौरवीय नाटकके उल्लेख से इन नामों के विषय में कुछ सन्देह हो जाता है क्योंकि उसमें समन्तभद्रके दो शिष्य बतलाये हैं - एक 'शिवकोटि ' और दूसरे 'शिवायन' । अभी हाल हीमें हमें संपादक जैनहितैषीके प्रयत्नसे एक छोटेसे ग्रन्थकी प्राप्ति हुई है जिसका नाम 'रत्नमाला' है और जिसके कर्त्ताका नाम 'शिवकोटि" लिखा है। इसकी एक प्रति कनड़ी लिपिमें श्राराके जैन सिद्धान्त भवन में मौजूद है । कुम्भोज (कोल्हापुर) के श्रीयुक्त पं० नाना रामचन्द्रनागने उसकी एक कापी भेजी है। इसके लिए हम नाग महाशयके देवनागरी लिपिमें कराकर हमारे पास अतिशय कृतज्ञ हैं । इस रत्नमालामें संस्कृतके ६७ अनुष्टुप् श्लोक हैं। मंगलाचरण इस प्रकार है : सर्वज्ञं सर्ववागीशं वीरं मारमदापहं । प्रणमामि महामोह शान्तये मुक्तताप्तये ॥ १॥ सारं यत्सर्वसारेषु वंद्यं मद्वंदितेष्वपि । अनेकान्तमयं वंदे तदर्हद्वचनं सदा || २ || For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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