Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 48
________________ ११० सुन रही थी क्योंकि जब धारा : श्राई जिसमें लिखा था कि कांग्रेस देशी रजवाड़ों के भीतरी मामलोंमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती, तब उसमें मतभेद पाया गया । कांग्रेस उस अवस्थामें मन्तव्य नहीं पास करती जब वह समझती कि देशी रियासतों का प्रतिनिधित्व हम नहीं कर सकतीं । श्रानन्दकी बात है कि देशी राज्यों में उत्तरदायित्व पूर्ण शासन स्थापित करनेका प्रस्ताव सुझाया गया जिससे मैं लोगोंको यह बता सका कि वादग्रस्त धाराका यह अभिप्राय नहीं है कि कांग्रेस देशी रजवाड़ोंकी प्रजाकी शिकायतों और अभिलाषाका पक्ष न ले । बात असल यह है कि वह इस विषय में कोई काररवाई नहीं कर सकती; अर्थात् कार्य से देशी नरेशके विरुद्ध शत्रुभाव उत्पन्न नहीं कर तीर्थों के झगड़ों को निबटाने का सकती। कांग्रेस सरकारपर श्रादेश करना वाहती है, पर देशी भूपतियोंपर नहीं । इस प्रकार खूब सोच विचार के बाद कांग्रेसने तीन बातें स्थिर की हैं। पहले पूर्ण स्वराज्य प्राप्त करने की बात हो सके तो अब भी ब्रिटिश सम्बन्धके साथ और नहीं तो उससे बाहर भी । ऐसा स्वराज्य प्राप्त करनेका ढंग सम्मानजनक और शान्तिपूर्ण रक्खा गया है जिससे प्रतिनिधियोंकी संख्या घटाकर हर पचास हजार मनुष्य पीछे एक प्रतिनिधि ही लेनेका निश्चय किया है और इस बातपर जोर दिया है कि प्रतिनिधि जनताके सच्चे प्रतिनिधि हों। नागपुरकी कांग्रेसने कलकत्तेकी स्पेशल कांग्रेस के असहयोग प्रस्तावका समर्थनकर उसे हर तरह से स्पष्ट कर दिया है । शान्तिका पालन करनेपर जोर देकर कांग्रेसने बताया है कि स्वराज्य प्राप्ति के लिए भारत के भिन्न भिन्न समाजोंमें मेल अवश्य रखना चाहिए और इसलिए हिन्दू मुसलमानोंकी जैनहितैषी । Jain Education International [ भाग १५ एकताका उपदेश दिया है। हिन्दू नेताओंसे अनुरोध किया गया है कि ब्राह्मणब्राह्मणके झगड़ों को श्रापसमें निपटा लें और धर्माचार्यों से यह कहें कि वे अछूतों को समाजमें मिलाने की चेष्टा करें। कांग्रेसने छात्रों के माता-पिताओं तथा वकीलोंसे कहा है कि वे राष्ट्रकी पुकार सुननेकी - और अधिक चेष्टा करें। सरकारी या सरकारसे सहायता पानेवाले स्कूलकालेज और वकालत छोड़नेका उनकी श्रोरसे अधिक प्रयत्न न होगा तो वे देशके सार्वजनिक जीवनले च्युत हो जायँगे । देशकी पुकार है कि प्रत्येक भारतीय पुरुष या स्त्री अपना काम पूरा करे ।" उपाय | धर्मको पहचानो । ( ले० पं० श्रसुखलाल जी शास्त्री, श्वेताम्बर । ) इतिहास तथा व्यवहार कहता है कि मनुष्य अनेक काम ऐसे करता है कि जिनमें नाम तो धर्मका होता है पर धर्मकी मात्रा उनमें बहुत कम रहती है, या बिलकुल ही नहीं रहती । तीर्थ-रक्षणका कार्य अवश्य धर्मका साधन माना जाता है, पर इसमें भी जब अज्ञान तथा कदाग्रहका योग हो जाता है तब वह धर्मका साधन होनेके बदले श्रधर्मका पोषक बन जाता है । जैन समाज धर्मप्रियसमाज होकर भी कई सालोंसे अपना स्वरूप व कर्त्तव्य भूल जानेके कारण श्रधर्मकी राह चलता हुआ नजर आता है। और समय, शक्ति तथा धनको परिणामशून्य झगड़ोंमें लगाकर, शत्रुताका भाव बढ़ाकर भाई For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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