Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 49
________________ अङ्क ३-४] तीर्थोके झगड़ोंको निबटानेका उपाय । भाईसे अलग हो रहा है। इस समाजके समभाव और श्रादरकी बात कहीं नजर प्रधानतया श्वेताम्बर, दिगम्बर दो फिरके नहीं पातीं, दो भाइयोंके जीवनकी धारायें हैं। ये दोनों एक दूसरेके समान होते भले ही भिन्न मार्गसे बहें, इसमें कोई अचहुए भी, साहित्य, प्राचार, और विचारमें रज नहीं, पर जब दोनोंका बहाव एक अपनी खास विशेषता रखते हैं । भगवान् दूसरेके विरुद्ध हो तब अवश्य खेद होगा। महाबीरके प्राचार व विचारको अनेक हम देखते हैं कि ये दोनों अभी पारस्पअंशोंमें सुरक्षित रखनेका गौरव श्वेता- रिक शत्रुभावसे प्रेरित हैं । अन्य ऐसे म्बर और दिगम्बर दोनोंसम्प्रदायोको प्राप्त धार्मिक विषय बहुत कम हैं जिनमें दोनों है। ये दोनों सम्प्रदाय मूर्तिको संसार- सम्प्रदायवालों को एकत्र होनेका और तरणका साधन मानते हैं और इसी भाव- मेलजोल बढ़ानेका तथा एक दूसरेकी से पूजते हैं, इसलिये प्रसिद्ध तीर्थोपर विशेषता जानकर प्रमुदित होनेका अवइन दोनोंका स्वत्व है। इसके विरुद्ध जैन सर मिलता हो; किन्तु उन पवित्र तीर्थ होते हुए भी मूर्तिकी प्रतिष्ठा न करनेवाले स्थानों पर विशेष हकके बहाने, विशेष स्थानकवासी सम्प्रदायका तीर्थोपर हकके नामपर दोनों सम्प्रदायवाले अपने स्वत्व नहीं है । इतना ही नहीं, बल्कि वह कषायका जहर भयंकर रीतिसे उगल रहे सम्प्रदाय सब तीर्थों को सर्वथा दिये हैं। यह काम जैनत्वकी रक्षाके लिये हो जाने पर भी लेनेसे इनकार ही करेगा, रहा है, यह और भी लांछनकी बात है! क्योंकि उनपर उसकी श्रद्धा नहीं। इस इस अशानजनित आवेशमें आकर दोनों तरह देखा जाय तो, चाहे उपासनाव सम्प्रदायोंने अपने सर्वस्वका हानिकारक विधिविधान दोनों सम्प्रदायोंमें कितने उपयोग अबतक किया । जैन जैसा ही भिन्न क्यों न हों पर हैं ये दोनों परस्पर व्यापारी समाज जिसको अपने धन्धेसे सहोदर भ्राता, क्योंकि मूर्ति कल्याणका धार्मिक कामके लिये फुरसत बहुत कम साधन है. इस तात्त्विक भावको दोनों ने मिलती है, जिसमें समाजकी भलाईके हदयसे अपनाया है और इसलिये दोनों लिये बुद्धिका विशेष प्रयोग करनेवाले सम्प्रदायोंके विद्वान् श्रीमानोने, अपने बहुत कम पाये जाते हैं, और जिसमें अपने कर्तव्यका चिरकालसे पालन किया कौड़ी कौड़ीका हिसाब गिनकरधन संचय है। इस कर्तव्यका पालन करते हुए दोनों करनेवालों की ही तादाद बड़ी है, उसने सम्प्रदायोंमें दुर्भाग्यवश ऐसी नासमझी, अपने समय, अपनी बुद्धि और अपने धनऐसी असहिष्णुता घुस पड़ी कि जिसके को साधारण लाभदायक कार्यमें तथा कारण दोनों स्वाभाविक भ्रातृभाव भूलकर समभाववर्धक कार्यमें उतना नहीं लगाया एक दूसरेको विरोधी भावसे देखने लगे। जितना कि विरोध बढ़ानेमें । दोनों दोनों सम्प्रदायवाले अपने कषायजय रूप सम्प्रदायवाले यह जानते हैं कि, अदालते पैतृक नैसर्गिक जैनत्वको छोड़कर व विदेशीय सत्ताके केन्द्र हैं। समय, बुद्धि भावतीर्थको भूलकर द्रव्यतीर्थके जयरूप और धननाशक प्रधान यन्त्र हैं। और स्थूल जैनत्वके सम्पादनमें अपनी द्रव्य- व्यय किया हुश्रा द्रव्य जैनभावसे विरुद्ध शक्तिका व्यय करने लग गये । इसी कारण मार्गमें अर्थात् हिंसाके पोषणमें जा रहा इन दोनों सम्प्रदायोंका व्यवहार कषाय- है, तब भी धर्मभावनाके नशेमें वे नहीं कालिमासे कलङ्कित है । परस्पर मेल, सम्हलते। कभी एक जीता व दुसरा हारा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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