Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 44
________________ जैनहितेषी। [भाग १५ एक बार उन्होंने पूज्यपादको देखकर में बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थोकी यात्रा फूत्कार किया, इसपर पूज्यपादने कहा, की। मार्गमें एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट विश्वास रक्खो, मैं तुम्हारे व्याकरणको हो गई थी, सो उन्होंने एक शान्त्यष्टक पूरा कर दूंगा। इसके बाद उन्होंने पाणि- बनाकर ज्योंकी त्यों कर ली। इसके बाद नि व्याकरणको पूरा कर दिया। उन्होंने अपने ग्राममें आकर समाधिपूर्वक इसके पहले वे जैनेन्द्र व्याकरण, अह- मरण किया ।" प्रतिष्ठालक्षण, और वैद्यक, ज्योतिष इस लेख के लिखने में हमें श्रद्धय मुनि आदिके कई ग्रन्थ रच चुके थे। जिनविजयजी और पं० बेहचरदास जीव गुणभट्टके मर जानेसे नागार्जुन अति- राजजीसे बहुत अधिक सहायता मिली शय दरिद्र हो गया । पूज्यपादने उसे है। इसलिए हम उक्त दोनों सजनोंके पद्मावतीका एक मन्त्र दिया और सिद्ध प्रति कृतज्ञता प्रकट करते है । मनि महोकरनेकी विधि बतला दी। पद्मावतीने दयकी कृपासे हमको इस लेख-सम्बन्धीजो नागार्जुनके निकट प्रकट होकर उसे सामग्री प्राप्त हुई है, वह यदि न मिलती सिद्धरसकी बनस्पति बतला दी। तो यह लेख शायद ही इस रूपमे पाठको इस सिद्धरससे नागार्जुन सोना के सामने उपस्थित हो सकता। बनाने लगा । उसके गर्वका परिहार पूना-भाद्र कृष्ण ६ संवत् १६७७ वि. करनेके लिए पूज्यपादने एक मामूली बनस्पतिसे कई घड़े सिद्धरस बना दिया। नागार्जुन अब पर्वतोको सुवर्णमय बनाने परिशिष्ट । लगा, तब धरणेन्द्र-पद्मावतीने उसे रोका और जिनालय बनाने को कहा। तदनुसार [ भगवद्वाग्वादिनीका उसने एक जिनालय बनवाया और पार्श्व विशेष परिचय । ] नाथकी प्रतिमा स्थापित की। __ पूज्यपाद पैरोंमें गगनगामी लेप इसके प्रारम्भमें पहले लक्ष्मीरात्यन्तिलगाकर विदेहक्षेत्रको जाया करते थे। की यस्य' श्रादि प्रसिद्ध मंगलाचरणका उस समय उनके शिष्य वज्रनन्दिने अपने श्लोक लिखा गया था। परन्तु पीछेसे साथियों से झगड़ा करके द्राविड संघकी उसपर हरताल फेर दी गई है और स्थापना की। उसकी जगह यह श्लोक और उत्थानिका नागार्जुन अनेक मन्त्र, तन्त्र तथा लिख दी गई हैरसादि सिद्ध करके बहुत प्रसिद्ध हो ओं नमः पार्थाय। गया । एक बार दो सुन्दरी स्त्रियाँ आई त्वरितमहिमदूतामंत्रितेनाद्भुतात्मा, जो गाने नाचनेमें कुशल थीं। नागार्जुन विषसमपि मघोना पृच्छता शब्दशास्त्रम् । उनपर मोहित हो गया। वे वहीं रहने लगी और एक दिन अवसर पाकर उसे श्रुतमदरिपुरासीद् वादिवृन्दाग्रणीनां, मारकर और उसकी रसगुटिका लेकर परमपदपटुर्यः स श्रिये वीरदेवः ॥ चलती बनीं। अष्टवार्षिकोऽपि तथाविधमक्ताभ्यर्थपूज्यपाद मुनि बहुत समयतक योगा- नाप्रणुन्नः स भवनानिदं प्राह-सिद्धिरनेभ्यास करते रहे। फिर एक देवके विमान- कान्तात् । १.१.१। . . .. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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