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अङ्क १-४] बहुविवाह विरोधका रहस्य ।
8. बहुविवाह विरोधका रहस्य। नहीं माना और बहुसम्मतिके ज़ोरपर
उक्त प्रस्ताव पास हो गया। - [लेखक-श्रीयुत नाथूराम प्रेमी।]
ऐसा क्यों हुआ? बहुविवाहके अनुकलकत्तेकी खण्डेलवाल जैन महा- कूल शास्त्र-प्रमाणोंके रहते हुए और सभामें एक प्रस्ताव यह भी पास हुआ समाजके एक धुरन्धर पण्डितके द्वारा है कि किसी खण्डेलवाल पुरुषको एक उसके अनुकूल व्यवस्था मिलते हुए भी स्त्रीके रहते हुए दूसरा, तीसरा आदि खण्डेलवाल समाजने उसे क्योंघृणित और विवाह नहीं करना चाहिए । उक्त महा- त्याज्य ठहरा दिया, इस पर कुछ अधिक सभाके संस्थापक या सर्वस्व पं० धन्ना- विचार करनेकी आवश्यकता है। इसीके लालजी काशलीवाल स्वयं इस प्रस्तावके भीतर प्रत्येक सुधारका और समयानुकूल • विरुद्ध थे। इसके पहले और भी एक दो प्रगतिका बीज छिपा हुआ है। बड़ी बड़ी सभाओं में वे बहुविवाहका जो लोग यह समझते हैं कि समाजमें मण्डन कर चुके हैं। बहुतसे शिक्षित- प्रत्येक सुधार शास्त्रोंकी आज्ञाके अनुसार यहाँतक कि पण्डितजन भी-आपके इस किये जाते हैं और अशिक्षित जनता तो मण्डन-हठको बड़े आश्चर्यकी दृष्टिसे शास्त्रोंको बहुत अधिक प्रमाण मानकर देखते हैं। परन्तु हमें इसपर ज़रा भी चलती है, उन्हें इस घटनापर विशेष आश्चर्य नहीं होता है। जब वे जैनकथा- मनोयोगपूर्वक विचार करना चाहिए । प्रन्योतकको अक्षरशः सत्य मानते हैं- हमारी समझमें साधारण जनता शामोंयहाँतक कि त्रिवर्णाचार जैसे ग्रन्थोंको की अपेक्षा रूढ़ियोंकी अत्यधिक गुलाम भी प्रमाण-कोटि में एक इंच भी पीछे होती है। इस विषयमें हम और भी कई रखना पसन्द नहीं करते हैं, तब उनके बार लिख चुके हैं । 'शास्त्रादिबलीयसी' द्वारा बहुविवाहका विरोध हो भी कैसे का सिद्धान्त हमारे समाजके प्रायः प्रत्येक सकता है ? हमारा प्रायः प्रत्येक महा- कार्यमें स्पष्टतासे दिखलाई देता है । पुरुष या शलाकापुरुष हज़ारों स्त्रियोंका जिन लोगोंने खंडेलवाल सभामें उक्त धनी रहा है। बहुतसे लोग तो उनकी प्रस्ताव पास कराया है, ऐसा नहीं है कि महत्ताका माप उनकी नियोंकी संख्यासे वे इस बातको न जानते हो कि जैनपुराणही किया करते हैं । चक्रवर्तीके ४६ हज़ार, से बहु-विवाहकी प्रथाका प्रायः अनुमोदन नारायणके १६ हज़ार, वासुदेवके ८ ही होता है; परन्तु एक तो वे देख रहे हैं हज़ार, इस तरह पदकी मर्यादाके अनु- कि पारिवारिक सुखशान्तिके लिए एक सार ही तो स्त्रियोकी संख्या बतलाई गई पुरुषके लिए एकसे अधिक स्त्रीका होना है। और त्रिवर्णाचारमें तो यहाँतक कहा ठीक नहीं है; दूसरे देश भरमें प्रायः यह है कि जैन गृहस्थको सन्तान अवश्य उत्पन्न प्रथा इतनी रूढ़ हो गई है कि अब इसके करना चाहिए-यह उसका धर्म है ! जो विरुद्ध चलनेका साहस तक लोग नहीं ऋतुस्नाता स्त्री अपने पतिसे सम्भोग कर सकते, तीसरे हमारी शासक जाति नहीं करती है वह दूसरे जन्ममें कुत्ती, जिसका अनुकरण शात और अज्ञात भावशृगाली श्रादिका जन्म पाती है। सुनते से प्रायः सारा ही देश कर रहा है-इस है, पण्डितजीने ये शास्त्रप्रमाण सभामें प्रथाको एक सभ्यताको निशानी समझती उपस्थित भी किये थे। फिर भी लोगोंने है; चौथे देशकी वर्तमान परिस्थिति में
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