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[ भाग १५
भट्टारक श्रीजिनचंद्रनामा
प्रतिमाको प्राचीन बनाकर अधिक धन
सैद्धान्तिकानां भुवियोस्तिसीमा || १५ || लेनेकी गुरजसे उसे किसी प्रकार दूर
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किया है । परन्तु यह बात प्रतिमाकी गौरसे जाँच करने पर मालूम हो सकती है । उक्त के दूर किये जानेकी हालत में 'संवत्' के बाद कुछ स्थान खाली होगा । और यदि ऐसा नहीं है तो समझना चाहिये कि १५ का श्रङ्क उत्कीर्ण होनेसे रह गया है। और यह तो कह नहीं सकते कि उस वक्त श्रधा संवत् लिखनेका भी रिवाज था, जैसाकि श्राजकल अँग्रेजीका सन् प्रायः श्रर्धरूपसे लिखा जाता है— १६२० को २० लिखते हैं--क्योंकि इस प्रकारके रिवाजका दूसरा कोई उदाहरण उस वक्तका देखने में नहीं श्राता ।
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तत्पुत्रो जिनचंद्रस्य पादपंकज षट्पदः । महारव्यः पंडितस्त्वस्ति
श्रावकव्रतभावकः ||२५||
जैनहितैषी ।
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इण्डियन एण्टिक्वेरीमें नन्दिसंघकी जो पट्टावली प्रकाशित हुई है उसमें भी जिनचन्द्र की यही गुरुपरम्परा दी है और साथ ही उनके पट्टपर प्रतिष्ठित होनेका संवत् भी १५०७ दिया है । और भी कई जगह इस गुरुपरम्पराका उल्लेख है । इन सब प्रमाणोंसे साफ जाहिर है कि प्रतिमा के लेखोंमें जिन श्रीजिनचन्द्रका उल्लेख है वे वही जिनचन्द्र हैं जो पं० मेघावीके गुरु थे और उनका अस्तित्वकाल विक्रमकी १६वीं शताब्दी है । और इसलिए उनकी श्रनायमें होनेवाले सहस्रकीर्ति या तो उनके समकालीन थे और या उनसे भी कुछ पीछे हुए हैं। ज्यादातर खयाल तो यही होता है कि वे जिनचन्द्रके शिष्यों में थे; नहीं तो वे अपने नामसे पूर्व अपने गुरुका नाम जरूर उस लेख में लिखाते । ऐसी हालतमें उक्त लेख का संवत् ४६ गलत है, यह कहने में जरा भी संकोच नहीं होता। हमारी रायमें वह संवत् १५४६ होगा । 'संवत्' शब्द के बाद १५ का श्रंक या तो घिस गया है या उस काबुलीने, जिससे बहुत रुपया देकर प्रतिमा खरीदी गई है,
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- देखो जैनसिद्धान्त भास्कर किरण ४ पृष्ठ ७६ । * जिनचन्द्र भट्टारकके बहुतसे शिष्य थे, ऐसा उक्त दान प्रशस्तिसे मालूम होता है। उसमें कुछके नाम दिये हैं और शेषको 'अन्ये च दशधर्मधरा वरा:' इन शब्दोंके द्वारा सूचित किया है। इन शब्दोंमें वे रत्नकोर्ति भी दाखिल हैं जिनका उल्लेख धर्मसंग्रह श्र० में खास तौर से किया गया है।
एक बात यहाँ पर और भी प्रकट कर देनेकी है; और वह यह है कि इण्डियन पेंटिक्वेरी में प्रकाशित नन्दिसंघकी पट्टावलीसे यह भी मालूम होता है कि उक्त जिनचन्द्र के पश्चात् उनका पट्ट-दो भागोंमें विभक्त हो गया है, एक गद्दी नागौर में स्थापित हुई और दूसरी चित्तौड़ में । नागौर के भट्टारकों की नामावली में सहस्रकीर्ति नामके दो श्रचायका उल्लेख है और उनका समय, उक्त नामावली में दिये हुए कुछ संवतोंके अनुसार, क्रमशः १७वीं और १६वीं शताब्दी के करीब होता है। यदि पट्टावलीका यही सब उल्लेख ठीक है और प्रतिमा के लेख में जिन सहस्रकीर्तिका नाम है वे इन्हीं दोनोंमें कोई एक हैं, तो प्रतिमाका, उक्त संवत् १६४६ या १८४६ होना चाहिये । परन्तु ऐसा होनेकी संभाबना बहुत कम है; क्योंकि लेख में सहस्रकीर्ति से पहले उनके दूसरे किसी साक्षात् गुरुका नाम नहीं है, जिसके उस हालतमें होनेकी बहुत ज्यादा संभावना थी ।
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