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(=) और तो फिर सोचते हो क्या भला ? पूर्व वैभव ? आज भी वह कम नहीं, इस तुम्हारी धूलिका कण एक भी - विश्वकी सम्पत्तिसे मौलिक कहीं । ( ह ) सत्य है वह पुण्यकाल न अब रहा, वृक्ष भी तुमपर न उतने हैं भले : और फिर वे फल फलाते हैं नहीं,
ऋतुमें क्यों फूलने फलने चले ? ( १० ) बात ऋषियोंकी किनारे ही रही,
श्राज उतने विहग क्या बसते यहाँ ? इन्द्रका आना तुम्हें अब स्वप्न है,
पतित पापी भी अरे आते कहाँ ? ( ११ ) रो दिये खग़की चहक के ब्याजसे,
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शान्त हो हे सिद्धिवर ! ढारस धरो नर्मदा भी है तुम्हारे दुःखसे,
दुःखिनी, कुछ ध्यान उसका भी करो । ( १२ ) नर्मदा तो आज भी रोती हुई
प्रिय तुम्हारे पूर्व वैभवकी कथाकह रही है, बह रही बन मन्थरा,
सान्त्वना दे बोलती " यह दुख वृथा ।” ( १३ ) नर्मदे ! तू कौन है ? कह तो तनिक,
काम तेरे हैं अलौकिकता भरे; परिक्रमा देती उधर श्रकारकी,
इधर इनके चरण में मस्तक धरे । ( १४ ) क्या रही दृष्टान्त है दिखला रही
एकसे हो उभय धारा तू यहाँ ; "जैन वैष्णव आदि सब ही एक हैं, एक उगम, एक मुख सबका वहाँ ।” ( १५ . ) भेद मत रक्खो अनादर मत करो तुम किसीसे धर्मके हित मत लड़ो ;
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जैनहितैषी ।
[ भाग -२५
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स्वीयको जानो उचित उन्नति करो, बुरा कहने में किसीके मत पड़ो । ( १६ ) सिद्धिवर ! गाश्रो यही अब भावना "वीर प्रभु सा शीघ्र ही अवतार हो : स्वार्थ, हिंसा दूर हो जावें सभी,विषमताका अब न कुछ व्यवहार हो । ( १७ )
मुनि वही घूमें पुनः इस देशमें, - शान्ति सुखका फिर वही विस्तार हो; दानवी दुर्भाव सारे नष्ट हों
मुक्त हों हम, देशका उद्धार हो ।”
प्रतिमा के लेखपर विचार |
ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजीने देहली, सेठके कूचेके जैनमन्दिरकी एक प्रतिमाका लेख अपने जैनमित्रके गताङ्क नं० = में प्रकाशित किया है और उसके सम्बन्ध में यह लिखकर कि "इसमें जो संवत् ४६ है वह यदि विक्रम संवत् माना जाय तो यह प्रतिमा साढ़े उन्नीस सौ वर्षकी प्राचीन है, " इतिहासज्ञ विद्वानों को उसपर विचार करनेकी प्रेरणा की है । अतः हम उसपर अपने विचार नीचे प्रकट करते हैं । ब्रह्मचारीजीको चाहिए कि वे इन्हें अपने पाठकोंपर भी प्रकट कर देवें, जिससे व्यर्थ ही किसी प्रकारका कोई भ्रम फैलने न पावे ।
प्रतिमाका उक्त लेख, जिसकी श्राठ पंक्तियाँ हैं, दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहले भागकी चार पंक्तियोंमें उन 'सहस्रकीर्ति' मुनिकी वंशपरम्पराका उल्लेख है जिनके उपदेशसे यह प्रतिमा स्थापित अथवा प्रतिष्ठित कराई गई है। साथ ही, उसके इस तरहपर स्थापित तथा प्रतिष्ठित किये जानेका
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