Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 19
________________ अङ्क ३-४] पुरानी बातोंकी खोज। तत्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति हुई है, ऐसा उक्त . संभव है कि इस मूलको* लेकर ही कथानकसे पाया जाता है। हम नहीं कह किसी दन्तकथाके आधारपर उक्त कथासकते कि उत्पत्तिकी यह कथा कहाँतक की रचना की गई हो; क्योंकि यहाँ प्रश्नठीक है। पर इतना ज़रूर है कि यह कथा कर्ता और प्राचार्य महोदयके जो विशेषया सात सौ वर्षसे भी अधिक पुरानी है; दिये गये हैं प्रायः वे सब कनड़ी टीकामें क्योंकि उक्त टीकाके कर्ता बालचंद्रमुनि भी पाये जाते हैं। साथ ही, प्रश्नोत्तरका विक्रमकी १३वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें हो ढंग भी दोनोंका एक ही सा है। और गये हैं। उनके गुरु 'नयकीर्ति' का देहान्त यह भी संभव है कि जो बात सर्वार्थशक सं० १०६8 (वि० सं० १२३४) में सिद्धि में संकेत रूपसे दी गई है वह बालहुआ था। चन्द्र मुनिको गुरु परम्परासे कुछ - मालूम नहीं कि इस कनड़ी टीकासे विस्तारके साथ मालूम हो और उन्होंने पहलेके और किस ग्रंथमें यह कथा पाई उसे लिपिबद्ध कर दिया हो; अथवा जाती है। तत्वार्थसूत्रकी जिनती टीकाएँ किसी दूसरे ही ग्रन्थसे उन्हें यह सब इस समय उपलब्ध हैं उनमें सबसे पुरानी विशेष हाल मालूम हुआ हो । कुछ हो, टीका 'सर्वार्थसिद्धि' है । परन्तु उसमें बात नई है जो अभीतक हमारे तथा यह कथा नहीं है। उसकी प्रस्तावनासे बहुतोंके जानने में नहीं आई थी और सिर्फ इतना ही पाया जाता है कि किसी इससे तत्वार्थसूत्रका संबन्ध दिगम्बर विद्वान्के प्रश्नपर इस मूल ग्रन्थ (तत्वार्थ- और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदायोंके सूत्र) का अवतार हुश्रा है। वह विद्वान् साथ स्थापित होता है। साथ ही, यह कौन था, किस सम्प्रदायका था, कहाँका भी मालूम होता है कि उस समय दोनों रहनेवाला था और उसे किस प्रकारसे सम्प्रदायोंमें आजकल जैसी खींचातानी प्रन्थकर्ता प्राचार्य महोदयका परिचय नहीं थी और न एक दूसरेको घृणाकी तथा समागम प्राप्त हुआ था, इन सब दृष्टिसे देखता था। (क्रमशः) बातोंके विषयमें उक्त टीका मौन है। यथा कश्चिद्भव्यः प्रत्यासन्ननिष्ठः प्रज्ञावान् • 'स्वहितमुपलिप्सुर्विविक्ते परमरम्ये भव्यसत्वविश्रामास्पदे क्वचिदाश्रमपदे मुनिपरिषण्मध्ये सन्निषण्णं मूर्तमिव मोक्षमार्गमवाग्विसर्ग वपुषा निरूपयन्तं युक्त्यागमकुशलं परहितप्रतिपादनककार्यमार्यनिषेव्यं निर्ग्रन्थाचार्यवर्यमुपसद्य सविनयं परि. पृच्छतिस्म, भगवन् किं खलु आत्मनोहितं * श्रुतसागरी टीकामें भी इसी मूलका प्रायः अतुस्यादिति । स आह मोक्ष इति । स एव सरण किया गया है और इसे सामने रखकर ही अन्यकी पुनः प्रत्याह किं स्वरूपोऽसौ मोक्षः कश्चास्य उत्थानिका लिखी गई है। साथ ही, इतना विशेष है कि प्राप्त्युपाय इति । आचार्य आह......" उसमें प्रश्नकर्ता विद्वान्का नाम 'द्वैयाक' अधिक दिया है। कनड़ी टीकावाली और बातें कुछ नहीं दी। यह टीका ..देखो श्रवण वेल्कोलस्थ शिलालेख नं० ४२। कनड़ी टीकासे कई सौ वर्ष बादकी बनी हुई है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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