Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 20
________________ २२. जैनहितैषी। [भाग १५ • विशेष अनुसन्धान । टककविचरित्रके कर्त्ताने इन्हें 'समुदायकर माघनन्दि लिखा है और इनका समय ई० सन् १९२६० दिया है । इससे यह ग्रन्थ 'दुष्प्राप्य और अलभ्य जैन ग्रन्थ' नाम- विक्रमकी १३ वीं या १४ वीं शताब्दीका के शीर्षकके नीचे हमने अबतक जितने बना हुआ मालूम होता है। इन्हीं माघग्रन्थोंका परिचय दिया है उनमेंसे जो नन्दि की बनाई हुई 'शास्त्रसार समुश्चय' प्रन्थ पाराके जैनसिद्धान्तभवनकी सूचीसे 'नामक ग्रन्थकी एक कर्णाटकी टीका भी . सम्बन्ध रखते हैं उनके विषयमें अनु- है जो छप चुकी है। सन्धान करनेपर जो कुछ विशेष हाल प्रमाणलक्षण । मालूम हुआ है वह पाठकोंके अवलोकनार्थ नीचे प्रकट किया जाता है: __ इस नामका जो ग्रन्थ भवनकी सूची में नं. ५२२ पर दिया है वह अत्यन्त जीर्ण-... अमृताशीति। शीर्ण अवस्थामें है। उसके पत्रोंकी संख्या ... यह प्रन्थ संस्कृत है, प्रायः उपदेशी ५५ नहीं बल्कि ८० से भी अधिक है। है, ध्यानका भी इसमें कुछ कथन है, । कुछ कथन है, परन्तु शुरूके और अन्तके कुछ पत्र नहीं योगीन्द्रदेव प्राचार्यका' बनाया हुआ है हैं जिनसे मंगलाचरण और प्रशस्तिका और जैनसिद्धान्तभवनमें मौजूद है। सूचीमें पता चलता कितने ही पत्र टूट रहे हैं 'अमृतीशिनी ऐसा नाम गलत छपा है । और जगह जगहसे कुछ खण्डित भी हो. . इसकी पद्य-संख्या ८२ है। कनडीसे देव- रहे हैं। ग्रन्थको पूरा देखनेका अभीतक नागरी अक्षरों में अब इसकी कापी भी हो अवसर नहीं मिला, इससे न तो यह अवसर नहीं मिल गई है और माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें मालूम हो सका कि ग्रन्थ कौनसे प्राचार्य: इसके छपाये जानेका विचार है। इसमें का बनाया हुआ है और न ग्रन्थके नामकई पद्य दूसरे प्राचार्योंके ग्रन्थोसे संग्रह का ही ग्रन्थपरसे कुछ स्पष्टीकरण हो किये गये हैं और कई प्राचार्योके नाम सका। हाँ, इतना ज़रूर मालूम हुआ है भी उन पधोंके साथ दिये हैं; जैसे जटा - कि यह उच्च कोटिका कोई न्यायग्रन्थ है। सिंहनन्द्याचार्य, अकलंकदेव और विद्या इस नामका ग्रन्थ अकलंकदेवका बनाया नन्द स्वामी। हुश्रा मैसूरकी सरकारी लाइब्रेरीमें मौजूद माघनन्दिश्रावकाचार। है जिसकी कापी कराकर भिजवानेके __ भवनकी सूची में इसे भाषाका ग्रन्थ लिए हमने मैसूरके भाइयोंसे प्रार्थना की लिखा है परन्तु यह प्राकृत न होकर थी। परन्तु खेद है कि अभीतक उसपर संस्कृतमिश्रित कनडी भाषाका ग्रन्थ है। कुछ भी ध्यान नहीं दिया गया ! हम अब इसके मंगलाचरणमें भी 'वक्ष्येकर्णाट. इसके लिए श्रीमान् सेठ वर्धमानप्पाजीसे भाषया' ये शब्द साफ़ दिये हैं। श्रीकुन्द- प्रार्थना करते हैं कि वह लाइब्रेरीसे उक्त कुन्दाचार्यसे पहले होनेवाले माघनन्दी ग्रन्थकी कापी कराकर उसे माणिकचन्द्र प्राचार्यका बनाया हुआ यह ग्रन्थ नहीं है, ग्रन्थमालाके मन्त्री साहबके पास बम्बई बल्कि इसके कर्ता दूसरे ही माघनन्दी हैं या हमारे पास शीघ्र भिजवा देवें, जिससे जो कुमुदेन्दु (कुमुदचन्द्र) भट्टारकके उसका उद्धार और प्रचार हो सके। शिष्य और उदयेन्दुके प्रशिभ्य थे। कर्णा- कापीकी उजरत दी जायगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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