Book Title: Jain Hiteshi 1921 Ank 01 02
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 8
________________ जैनहितैषी। [ भाग १५ तोड़ने दूं क्या इसे कल्पना कीजिये, एक मनुष्य किसी __ नकली किला मैं मानके । स्थानपर अपनी छतरी भूल आया। वह पूजते हैं भक्त क्या प्रभुः जिस समय मार्गमें चला आ रहा था, - मूर्तिको जड़ जानके । उसे सामनेसे एक दूसरा आदमी पाता हुश्रा नज़र पड़ा जिसके हाथमें छतरी अज्ञ जन उसको भले ही थी। छतरीको देखकर उस मनुष्यको जड़ कहें अज्ञानसे। झटसे अपनी छतरीकी याद आ गई और . देखते भगवानको यह मालूम हो गया कि मैं अपनी छतरी धीमान उसमें ध्यानसे ।। अमुक जगह भूल पाया हूँ और इसलिए -रंगमें भंग। वह तुरन्त उसे लानेके लिए वहाँ चला इससे पाठक मूर्तिपूजाके भावको गया और ले आया। अब यहाँपर यह और भी स्पष्टताके साथ अनुभव कर प्रश्न उत्पन्न होता है कि उस मनुष्यको सकते हैं, और यह समझ सकते हैं कि किसने बतलाया कि तू अपनी छतरी इन मूर्तियोंके द्वारा परमात्माका ही पूजना. अमुक जगहं भूल पाया है। वह दूसरा अभीष्ट होता है-धातुपाषाण का नहीं। श्रादमी तो कुछ बोला नहीं, और भी मूर्तिका विनय-विनय, वास्तव में मूर्ति- किसी तीसरे व्यक्तिने उस मनुष्यके कानमानका ही विनय-विनय है। और यही में आकर कुछ कहा नहीं। तब क्या वह वजह है कि जो कोई किसी महात्मा, जड़ छतरी ही उस मनुष्यसे बोल उठी परमात्मा, राजा या महाराजाकी लोकमें कि तू अपनी छतरी भूल पाया है परन्तु सम्प्रतिष्ठित मूर्तिका अविनय करता है ऐसा भी कुछ नहीं है। फिर भी यह ज़रूर वह दण्डका पात्र समझा जाता है और कहना होगा कि उस मनुष्यको अपनी उसे, प्रमाणित होनेपर, दण्ड दिया भी छतरीके भूलनेकी जो कुछ ख़बर पड़ी है जाता है। और वहाँसे लाने में उसकी जो कुछ प्रवृत्ति : यह ठीक है कि, धातुपाषाण की ये हुई है उन सबका निमित्त कारण वह मूर्तियाँ हमें कुछ देती-दिलाती नहीं हैं। छतरी ही है, उस छतरीसे ही उसे यह और इनसे ऐसी अाशा रखना इनके सब उपदेश मिला है और ऐसे उपदेशको स्वरूपकी अनभिज्ञता प्रकट करता है। "नैमित्तिक उपदेश" कहते हैं। यही उपतो भी परमात्माकी स्तुति श्रादिके द्वारा देश हमें परमात्माकी मूर्तियोपरसे मिलता म सानोको उत्पन्न करके हम जिस है। जैनियोंकी ऐसी मूर्तियाँ, ध्यानमुद्राप्रकार अपना बहुत कुछ हितसाधन कर को लिये हुए, परम वीतराग और शान्तलेते हैं उसी प्रकार इन मूर्तियोंकी सहा- स्वरूप होती हैं। उन्हें देखनेसे बड़ी यतासे भी हमारा बहुत कुछ काम निकल शान्ति मिलती है, आत्मस्वरूपकी स्मृति जाता है। मूर्तियोंके देखनेसे हमें पर- होती है-यह खयाल उत्पन्न होता है कि मात्माका स्मरण होता है और उससे हे आत्मन् ! तेरा स्वरूप यह है, तू इसे फिर मात्मसुधारकी ओर हमारी प्रवृत्ति भूलकर संसारके मायाजालमें और होने लगती है। यह सब कैसे होता है, कषायोंके फन्देमें क्यों फँसा हुआ हैइसे एक उदाहरणके द्वारा नीचे स्पष्ट नतीजा जिसका यह होता है कि, (यदि किया जाता है बीचमें कोई बाधा उत्पन्न नहीं होती तो) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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