Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 6
________________ जैनहितैषी [भाग १४ प्रकार भी नहीं है । क्योंकि जब भारतके ६०० अपने अपने हाईस्कूल, बोर्डिंग और कालिज मनुष्योंमें केवल एक ही जैनी है तब भारतके बना लिये हैं और बनाती चली जा रही हैं, ६०० विद्वानोंमें यदि एक भी जैन विद्वान हो तो जिनमें अपनी अपनी जातियोंके बालक इकट्रे जातिमें विद्वानोंकी कमी नहीं कही जा सकती। रह कर विद्याध्ययन करते हैं, अपना धर्म कर्म परन्तु जातिमें तो इससे कई गुणे विद्वान् पाये सीखते हैं और अपनी जातिके प्रेमका पूर्ण जाते हैं । उदाहरणके लिये यदि इस समय संस्कार प्राप्त करते हैं; परन्तु हमारी अधिकांश 'भारतके विद्वानोंकी संख्या ६० हजार भी मान जाति अभी तक अपने बालकोंके लिये अपने ली जावे तो जैनियोंमें १०० विद्वानोंका होना स्कूल, बोर्डिंग और कालिज बनाना पाप ही ही काफी हो जाता है । परन्तु देखते यह हैं समझ रही है । उसके धर्माधिकारी और मोक्ष'कि जैनियोंमें इस समय कमसे कम १०० विद्वान पथप्रदर्शक विद्वान् भी चिल्ला चिल्ला कर और तो संस्कृतविद्याकी उच्च उपाधियोंसे विभूषित पुकार पुकार कर जातिको ऐसे कामोंसे रोक रहे हैं और २०० विद्वान् अंग्रेजीकी बी० ए० और हैं और ऐसे कामोंमें रुपया देनेको कुदान बता एम० ए० आदिकी उपाधियाँ-प्राप्त हैं। इस प्रकार रहे हैं । इस कारण इस जातिके बालक बहुत कमसे कम ३०० विद्वान मौजूद हैं, जिससे करके अन्य जातियोंके ही स्कूल कालिजोंमें हमको बड़े अभिमानके साथ यह कहनेका पढ़ते हैं, उन्हींके बोर्डिंगोंमें रह कर उन्हींकी साहस होता है कि अन्य जातियोंकी अपेक्षा बातें सीखते हैं और उन्हींके संस्कार प्राप्त करते जैनजातिमें तिगुणे विद्वान् हैं । परन्तु ऐसा हैं-यहाँ तक कि, ईसाइयोंके स्कूलों और कालिहोने पर क्या अन्य जातियों की अपेक्षा इस जोंमें पढ़नेकी हालतमें तो वे उनके धर्मग्रन्थोंको जैनजातिकी उन्नति भी तिगुनी हो रही है ? भी कंठस्थ करते हैं, नित्य प्रति उनकी नमाज उत्तरमें शोकके साथ कहना पड़ता है कि 'नहीं;' या प्रार्थनामें शामिल होते हैं और उनके धर्मो यह जाति तो अन्य जातियोंकी बराबरी भी पदेशोंको सुननेके लिये भी वाध्य किये जाते हैं। - नहीं कर रही है बल्कि उनसे बहुत नीचे गिरी इससे अधिक गिरी हुई दशा जातिकी और क्या हुई है और ज्यादा ज्यादा गिरती चली जाती हो सकती है ! है । दृष्टान्तरूपसे विचार कीजिये कि मनुष्य- भ्रातृभाव, परस्परकी प्रीति और ऐक्यमें गणनाके अनुसार भारतकी अन्य जातियाँ तो भी यह जाति अन्य जातियोंसे बहुत नीचे गिरसंख्यामें बढ़ती चली जा रही हैं, जिससे पिछले गई है । एक समय था जब यह जाति संख्यामें ३० वर्षके अंदर ही भारतके लोग २८ करोड़से अल्प होते हुए भी अपने वात्सल्य और ऐक्यके ३३ करोड़ हो गये और अबकी मनुष्यगणनामें कारण सब कुछ शक्ति और गौरव प्राप्त किये आशा है कि वे ३५ करोड़ हो जावेंगे; परन्तु हुए थी और अन्य बड़ी बड़ी जातियोंसे किसी जैनजाति इन ही पिछले ३० वर्षों में घटते घटते बातमें भी कम नहीं समझी जाती थी; परन्तु १५ लाखसे १२ लाख रह गई है और भय है कि अब तो इसने अपने इस अमूल्य रत्नको भी कहीं अबकी मनुष्यगणनामें वह १०-११ लाख खो दिया है और आम्नायभेद, पंथभेद, सम्प्रही न रह जावे ! इससे अधिक अवनति और दायभेद, जातिभेद, आदि अनेक भेदोंके द्वारा अधोगति और क्या हो सकती है ? इसही प्रकार ईर्षा और द्वेषका अटल राज्य ही स्थापित कर भारतकी अन्य सब ही जातियोंने स्थान स्थानपर दिया है। यह गिरते गिरते यहाँतक गिर गई है . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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