Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 1
________________ हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः । ID | जैनाहितैषी। चौदहवाँ भाग। अंक १०-११ जैनहितैषी। श्रावण, भाद्र २४४६ जुलाई,अगस्त १९२० न हो पक्षपाती बतावे सुमार्ग, डरे ना किसीसे कहे सत्यवाणी। बने है विनोदी भले आशयोंसे, सभी जैनियोंका हितैषी ‘हितैषी' ॥ . जैनसमाजकी दशा और उसके भीतर बहुत समयसे दिगम्बर और श्वेताम्बर संप्रदाय नक्षपातसे चले आ रहे हैं । बादमें सुधारके उपाय । दिगम्बर और श्वेताम्बर संप्रदायके गृहत्यागी आचार्यों के अलग अलग संघ, गण, गच्छ, पट्ट, आदि निर्माण हुए । प्रत्येक संघको (ले०-सरस्वती सहोदर ।) माननेवाले श्रावकोंने पक्षभेदसे अपनेको भिन्न आम्नाय-आग्रह पंथ-हठ औ रूढ़िमें सब सन रहे। भिन्न आम्नायके माननेवालोंका स्वरूप दिया। स्याद्वादके झंडे तले यों पक्षपाती बन रहे ॥ इसी तरह जरा जरासी विचारविभिन्नता पर सं-ज्ञान-श्रद्धा, मानते हैं धर्मके बहिरंगमें । जैनजनता एक दूसरेसे अलग होती गई । आचरण हैं बस रूढ़ियों पर, ढोंगियोंके ढंगर्म ॥१॥ वर्तमानमें जैनसमाजमें दिगम्बर, श्वेताम्बर यह जैनसमाजकी वर्तमान अवस्था बड़ी शोच- दो संप्रदाय मुख्य गिने जाते हैं। श्वेताम्बरोंमें नाय हो रही है। गतानुगतिक आदतोंसे समाजको स्थानकवासी और मन्दिरमार्गी दो भेद हैं। घुनसा लग गया है । जिधर देखो उधर पक्ष. इनके अतिरिक्त तेरहपंथी बाईसटोला आदि और पातका साम्राज्य नजर आ रहा है । विचार- भी कई उपभेद हैं । दिगम्बरोंमें भी बीसपंथी, स्वातंत्र्यकी ओटमें भी पक्षपातकी बुरी गंध फैल तेरापंथी और तारनपंथी इत्यादि भेद हैं । रही है । इसी पक्षपात और अनेकतासे वास्त- बीसपंथी भट्टारकोंकी आम्नायके कहलाते हैं। विक जैनधर्म और जैनसमाजकी जड़ दृढ़ इनमें भी बलात्कार, सेनगण आदि कई भेदहोमेकी अपेक्षा निर्बल होती जा रही है। भाव हैं. जिनके माननेवालोंमें परस्पर इतना वर्तमानमें “ आठ कनोजिया नौ चूल्हेकी" वैमनस्य है कि वे लोग दूसरे गणके भट्टारकोंके कहावत बराबर घटित होती है । जैनधर्मके पास या उस गण गच्छवालोंके मंदिरोंमें जाना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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