Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 4
________________ २८४ जैनहितैषी [भाग १४ केवल आपसहीमें शक्ति नष्ट हुई और हो रही जमें धार्मिक और सामाजिक आन्दोलन, उन्नति है । सभा सुसाइटियोंकी मनमानी कार्यवाही और सुधारके लिये, वर्तमान समयतक होता और वर्षमें तीन दिनके बातूनी प्रस्तावोंसे न तो आया है वैसे ही हमारा धार्मिक और सामाजिक समाजका सुधार हुआ और न समाजका उचित पतन होता जा रहा है। इसका कारण यही है संगठन ही हुआ । इसके विपरीत समाज पूर्वकी कि हम लोग जैनसमाजके रोगकी वास्तविक अपेक्षा और भी छिन्न भिन्न हो गया। परीक्षा न करके आँख बंद किये केवल बाहरी ___ इसका कारण यही है कि जैनसमाजमें उपचार करते आये हैं जो समाजको पथ्यरूप अन्धश्रद्धा और रूढियोंकी गुलामीका बड़ा जोर होना तो दूर रहा उलटा अपथ्य हो रहा है । शोर है । जैनसमाजकी सभा, संस्थाएँ भी जैनधर्म और समाजकी उन्नति और सच्चे इन्हीं रोगोंसे आक्रान्त हैं । एक तो जैनसमाजमें सुधारके लिये निम्न लिखित उपाय काममें लाना अन्य जातियोंकी अपेक्षा शिक्षाकी बहुत ही कमी होगा तभी वास्तवमें उन्नति होगी, ऐसी लेखकहै । जो थोड़ी बहुत शिक्षा आजकल जैनछात्रों- की दृढ भावना हैको दी जाती है वह भी उक्त रोगके संक्रमणसे (१) सबसे पहले जैनसमाजके अंतर्गत खाली नहीं । पिछले दश वर्षों में (सन् भेद भावों ( आम्नाय, मत, पंथ और संप्रदाय १९१० से आजतक ) भारतके राजनैतिक, इत्यादि) को मिटाने के लिये जैनधर्मके वास्त. सामाजिक और आर्थिक आकाशमंडलमें बड़ाभारी विक मूल सिद्धांत अध्यात्मका खूब जोर शोरसे परिवर्तन हो चुका है जिसके होनेकी कल्पना प्रचार करना चाहिये, ताकि जैन जनताकी भविष्यतमें सौ पचास वर्षांतक नहीं थी। इसका नस नसमें आध्यात्मिक भाव जागृत हो उठे । कारण यूरोपीय महा समर है । यद्यपि यह महा- आध्यात्मिक भावोंकी जागृति होने पर स्वयं ही समर स्थगित हो गया तथापि अंतर्राष्ट्रीय विप्लव- बाहरी भेदभाव नष्ट होने लगेंगे और अभेकी अग्नि जहाँ तहाँ भड़क रही है और संभव दभावकी वृद्धि होने लगेगी। दूसरे आध्यात्मिक है कि थोड़े ही समयमें संसारमें महाप्रलयका भावोंकी जागृति हो जानेपर जैनसमाज मिथ्या युद्ध फिर आरंभ हो जाय । इन्हीं बातोंसे संसा- रूढ़ियोंकी गुलाम न बनी रहेगी, बल्कि देश, रके सभी देशोंमें जनताकी राष्ट्रीय, सामाजिक काल, भावकी परिस्थितियों और आवश्यकताओंके गति बड़ी तीव्रतासे बदल रही है । ऐसी अव- मार्ग पर चलने लगेगी। उसके सब बनावटी ढोंग स्थामें भी हमारे जैनसमाजकी सभा, सुसाइटियाँ और असमयानुकूल दानकी प्रवृत्ति मिट जायगी। और भिन्नभिन्न संस्थाएँ भारतके उसी वातावरणमें (२) आध्यात्मिकताके साथ ही साथ जैनलीन हो रही हैं जो आजसे लगभग २०-२५ समाजमें नीतिपथका विचार और प्रवृत्ति बढ़ावर्ष पूर्व था । यह बात प्रत्येक व्यक्तिको अपने नेकी योजना करनी चाहिये । नीतिपथके वर्तहृदय-पटपर लिख रखना चाहिये कि प्रत्येक मानमें तीन भेद हैं-व्यक्तिगत, सामाजिक, समाजका देशसे अत्यंत घनिष्ठ सम्बन्ध है और और राष्ट्रीय ( राजनैतिक )। जैनधर्मके ग्रन्थों में देशकी गतिके अनुसार ही उसे अपनी गति, वर्णित क्रियाकाण्ड जिसे हम मोक्षमार्गका बाह्य अपना अस्तित्व कायम रखनेके लिये, बदलनी चारित्र मानते हैं उसकी रचना यद्यपि नीतिके पड़ती है । और यह बात हमारे जैनसमाजमें सिद्धांतों पर अवलम्बित है, तथापि हमें वर्ततथा उसकी सभा संस्थाओंमें नहीं है। इसी लिये मान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके अनुसार सर्वअनेक आन्दोलनोंके होते हुए भी समाजका सुधार व्यापी, सुगम, और उपयोगी बनाने के लिये नहीं होता । बल्कि समाजकी शक्ति दिन पर उसमें कई प्रकारके परिवर्तन करने होंगे और दिन क्षीण ही होती जा रही है । जैसे जैसे समा- यह बात पूर्वाचार्यों के शासनभेदसे भी भली; Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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