Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 36
________________ ३१६ जैनहितैषी [भाग १४ प्रासकके इस लक्षणानुसार जैन मुनि अग्नि- त्यागसे भी बढ़ा हुआ है ! मुनि तो अग्निद्वारा पक्कके अतिरिक्त दूसरी अवस्थाओं द्वारा प्रासुक पके हुए कंद मलोंको खासकते हैं परन्त वे हए कंद मलोंको भी खा सकते हैं, ऐसा आता गृहस्थ जो छठी प्रतिमा तो क्या पहली प्रतिमाके है। परंतु पहली गाथामें साफ तौरसे उन कंद भी धारक नहीं हैं उनके खानेसे इनकार करते मलोंको अभक्ष्य ठहराया है जो अग्निद्वारा पके हैं, इतना ही नहीं बल्कि उनका खाना शास्त्रहा नहीं हैं और इससे सूखने, तपने, आदि विहित नहीं समझते ! यह सब अज्ञान और दूसरी अवस्थाओं द्वारा प्रासुक हुए कंद मूल रूढिका माहात्म्य है!! मनियोंके लिये अभक्ष्य ठहरते हैं । अतः या तो २-क्या सभी कंदमूल अनंतपहली गाथामें कहे हुए 'अनग्निपक्क ' विशेषणको काय होते हैं ? उपलक्षण मानना चाहिये जिससे सूखे, तपे आदि सभी प्रकारके प्रासुक कंद-मूलोंका ग्रहण हो सके आमतौर पर जैनियोंमें यह माना जाता है और नहीं तो यह मानना पडेगा कि मानिलोग कि कंदमूल सब अनंतकाय होते हैं-उनमें फलों तथा बीजोंको भी अग्निपककेसिवाय दसरी एक एक शरीरके आश्रित अनंते जीव विद्यमान अवस्थाद्वारा प्रासुक होनेपर ग्रहण नहीं कर . हैं- इस लिये हमारे बहुतसे पाठकोंको यह सकते; क्योंकि गाथामें 'फलमूलकंदवीयं ' ऐसा प्रश्न भी कुछ नया सा मालूम होगा। परन्तु पाठ है, जिसका 'अनग्गिपक्क' विशेषण दिया गया नया हो या पुराना, प्रश्न अच्छा है और इसका है परंतु जहाँ तक हम समझते हैं उक्त अनग्निपक्क निर्णय भी शास्त्राधारसे ही होना चाहिए । हम विशेषणको उपलक्षणरूपसे मानना ज्यादह भी ऐसा ही यत्न करते हैं:- , अच्छा होगा और उससे सब कथनोंकी संगति गोम्मटसारके जीवकांडमें, प्रत्येक और अनंतभी ठीक बैठ जावेगी । अस्तु; उक्त विशेषण कायकी पहिचान बतलाते हुए, विशेष नियमके उपलक्षणरूपसे हो या न हो परंतु इसमें तो कोई तौर पर एक गाथा इस प्रकारसे दी है :संदेह नहीं रहता कि दिगम्बर मुनि अग्निद्वारा मूले कंदे छल्ली पवालसालदलकुसुमफलवीजे। पके हुए-शाक भाजी आदिके रूपमें प्रस्तुत समभंगे सदिणंता असमे सदि होति पत्तेया॥ १८७ ॥ किये हुए कंद मूल जरूर खा सकते हैं । हाँ, इसमें यह बतलाया है कि जिस किसी कंदकच्चे कंद-मूल वे नहीं खा सकते । छठी प्रतिमा- मूलादिकके तोड़ने पर समभंग हो जायँ उसे धारक गृहस्थोंके लिये भी उन्हींका निषेध किया अनंतकाय और जिसके समभंग न हों-बीचमें गया है जैसा कि श्रीसमंतभद्रके निम्नवाक्यसे . तंतु रहें, ऊँचा नीचा टूटे-उसे प्रत्येक समझना प्रकट है: चाहिये । इससे स्पष्ट है कि कंदमूल भी दो प्रकामूलफलशाकशाखाकरीरकंदप्रसूनबीजानि । रके होते हैं, एक प्रत्येक और दूसरे अनंतकाय । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ॥ उक्त गाथाके अनन्तर एक दूसरे विशेष नियम परन्तु आजकलके श्रावकोंका त्यागभाव की प्रतिपादक गाथा इस प्रकार है:बड़ा ही विलक्षण मालूम होता है, वह मुनियोंके कंदस्सव मूलस्सव सालाखंदस्स वाविबहुलतरी । छल्ली साणंतजिया पत्तेयजिया तु तणुकदी॥१८८॥ १ यथा. शुष्कपक्रध्वस्ताम्ललवणसंमिश्रदग्धादिद्रव्यं प्रासुकं । इति. १ आदिक शब्दसे छाल, कोपल, शाखा, पत्र, पुष्प, -गोम्मटसारटीकायां। फल र २ २ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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