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जैनहितैषी
[भाग १४ का ग्रंथ जगतके हितके लिये रचा है।' जहाँ- वैसा लिख दिया हो तो इसमें कुछ भी आश्चर्य तक हम समझते हैं यह अर्थ दोनों पयोंकी नहीं है । और यह भी संभव है कि पहले पद्यमें शब्दरचना परसे बहुत कुछ सीधा, सुसंगत और जो नागसेन लिखा था उसीके खयाल तथा प्राकृतिक मालूम होता है । विपरीत इसके, संस्कारसे दूसरे पद्यमें भी नागसेन लिखा गया छपे हुए पाठको ज्योंका त्यों रखनेकी हो और इस तरह पर लेखकसे भूल हुई हो। हालतमें, ' नागसेनकी पुनरावृत्ति बहुत खटकती तत्त्वानुशासनकी इस छपी हुई प्रतिमें वैसे भी है । ' सः ' आदि शब्दोंको ऊपरसे लगाकर पचासों अशुद्धियाँ पाई जाती हैं। यदि बम्बईके पहले पद्यका अर्थ करना होता है और विजय, मंदिरकी वह प्रति बिलकुल इसीके मुताबिक है देवको खींच-खाँचकर नागसेन मुनिका दीक्षागुरु तो कहना होगा कि वह प्रति बहुत कुछ अशुद्ध बनाना पड़ता है। इस लिये हमारी रायमें जय- है और उसमें ऐसी भूलका हो जाना कोई बड़ी पुरादिकी प्रतियोंका उपर्युक्त पाठ बहुत कुछ ठीक बात नहीं है । विद्वानोंको चाहिये कि वे दूसरे मालूम होता है और उसके अनुसार यह ग्रंथ स्थानोंकी और भी प्रतियोंसे इस बातको अच्छी 'श्रीनागसेनमुनिका बनाया हुआ न होकर तरह जाँच लेवें और उसे सर्वसाधारण पर प्रकट उनके दीक्षित शिष्य श्रीरामसेन विद्वानका कर देवें, जिससे एक विद्वानकी कृति व्यर्थ ही बनाया हुआ जान पड़ता है । पं० आशाधरजी दसरे विद्वानकी कृति न समझ ली जाय । यदि भी अपने अनगारधर्मामृतके ९ वें अध्यायमें, वे भी इस ग्रंथको श्रीरामसेनका ही बनाया हुआ इस ग्रंथका एक पद्य ' रामसेन' के नामसे उद्- निश्चित करें तो उन्हें साथमें यह भी खोज धृत करते हैं । वह उद्धरण इस प्रकार है- करनी चाहिये कि ये रामसेन नामके विद्वान "तथा 'श्रीमद्रामसेन पूज्यैरप्यवाचि
विक्रमकी १३ वीं शताब्दीसे कितने पहले हुए स्वाध्यायाध्यानमध्यास्तां ध्यानात्स्वाध्यायमामनत् । हैं, इनका विशेष परिचय क्या है, और इनका ध्यानस्वाध्याय संपत्त्यापामात्मा प्रकाशते ॥ ८१ ॥ उल्लेख और किस किस ग्रंथमें पाया जाता है।
इससे यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है पं० आशाधरजीने इनके लिये बहुवचनान्त कि यह ग्रंथ नागसेनका नहीं, किंतु 'रामसेन' 'पूज्य' शब्दका प्रयोग किया है जिससे ये कोई का बनाया हुआ है। 'नाग' और 'राम' बड़े आचार्य मालूम होते हैं । तत्त्वानुशासन ये दोनों शब्द लिखनेमें बहुत कुछ मिलते जुल- नामकी कृति भी अच्छे महत्त्वको लिये हुए है। तेसे मालम होते हैं। हस्तलिखित ग्रंथोंके पत्र संभव है कि ये वही रामसेन आचार्य हों वर्षा आदिके कारण अक्सर चिपट जाया करते जिनको 'दर्शनसार' में माथुरसंघका उत्पादक हैं और उनको छुड़ाने में किसी किसी अक्षरका लिखा है और जिनका समय वि० सं० ९५३ कुछ भाग उड़कर उसकी आकृति भी बदल दिया है । विद्वानोंको इस विषयकी खोज जाया करती है। ऐसी हालतमें यदि किसी
करनी चाहिये। लेखकने 'राम' के स्थानमें 'नाग' पढ़कर
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