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अङ्क १०-११] शास्त्रीय-चर्चा ।
... ३१५ शास्त्रीय-चर्चा। - टीका--यद्भवत्यवीज निजि निर्वर्तिमं निर्गत
मध्यसार प्रासुकं कृतं चैव ज्ञात्वाऽशनीय तद्भेक्ष्य N EKK मुनयः प्रतीच्छंति ॥ १-क्या मुनि कंदमूल खा सकते है। इन दोनों गाथाओंमेंसे पहली गाथामें मुनिके
ऊपरका प्रश्न हमारे बहुतसे पाठकोंको एक- लिये ‘अभक्ष्य क्या है' और दूसरीमें 'भक्ष्य दम खटकेगा और वे उत्तरमें सहसा 'नहीं' क्या है, ' इसका कुछ विधान किया है ।
शब्द कहना चाहेंगे। परंतु शास्त्रीय चर्चा में इस पहली गाथामें लिखा है कि जो फल, कंद, ।' प्रकारके जबानी उत्तरोंका कुछ भी मूल्य नहीं मूल तथा बीज अग्निसे पके हुए नहीं हैं और है। इसमें केवल वही उत्तर ग्राह्य हो सकते हैं और भी जो कुछ कच्चे पदार्थ हैं उन सबको जो शास्त्रप्रमाणको लिये हुए हों। अतः उक्त अनशनीय (अभक्ष्य ) समझकर वे धीरमुनि प्रश्नका समाधान करने के लिये शास्त्रीय प्रमाणोंके भोजनके लिये ग्रहण नहीं करते हैं। दूसरी अनुसंधानकी जरूरत है। हम भी इस विषयमें गाथामें यह बतलाया है कि जो बीजरहित हैं, आन कुछ यत्न करते हैं।
जिनका मध्यसार (जलभाग ? ) निकल गया है दिगम्बर सम्प्रदायमें 'मूलाचार' नामका एक अथवा जो प्रासक किये गये हैं ऐसे सब खानेके अतिशय प्राचीन और प्रसिद्ध ग्रंथ है, जिसे पदार्थोंको भक्ष्य समझकर मुनि लोग भिक्षामें श्रीवट्टकेर आचार्यने बनाया है। श्वेताम्बरोंमें ग्रहण करते हैं। 'आचारांगसूत्र' को जो पद प्राप्त है दिगम्बरोंमें मूलाचारको उससे कम पद प्राप्त नहीं है। दिग- मूलाचारके इस संपूर्ण कथनसे यह बिलकुल म्बर सम्प्रदायमें यह एक बड़ा ही पूज्य और स्पष्ट है और अनशनीय कंद-मूलोंका 'अनमिपक्क' माननीय ग्रंथ समझा जाता है। श्रीवसुनन्दी सैद्धा- विशेषण इस बातको साफ बतला रहा है कि न्तिकने इस पर 'आचारवृत्ति' नामकी एक जैन मुनि कच्चे कंद मूल नहीं खाते परंतु संस्कृत टीका भी लिखी है जो सर्वत्र प्रसिद्ध अनिमें पकाकर शाक-भाजी आदिके रूपमें है और बड़े गौरवके साथ देखी जाती है । इस प्रस्तत किये हए कंद-मल वे जरूर खा सकते ग्रंथकी निम्नलिखित दो गाथाओं और उनकी ,
का हैं। दूसरी गाथामें प्रासुक किये हुए पदार्थीको संस्कृतटीका परसे उक्त प्रश्नका अच्छा समा- .
भी मोजनमें ग्रहणकर लेनेका उनके लिये विधान धान हो जाता है, इसीसे हम उन्हें नीचे उद्धृत करते हैं:
किया गया है । यद्यपि अग्निपक्क भी प्रासुक होते फलकंदमूलवायं अणग्गिपकं तु आमयं किंचि। हैं, परंतु प्रासुककी सीमा उससे कहीं अधिक पच्चा असणीयं णवि य पडिच्छंति ते धीरा ॥९.५९॥
टीका-फलानि कंदमूलानि वीजानि चाग्निप- मिलाए और यंत्रादिकसे छिन्न भिन्न किये हुए क्वानि न भवंति यानि अन्यदपि आमकं यत्किचिदन. शनीयं ज्ञात्वा नैव प्रतीच्छंति नाभ्युपगच्छति ते धीरा
निम्न लिखित शास्त्रप्रसिद्ध गाथासे प्रकट है।इति । यदशनीयं तदाहःजं हवदि अणबीयं णिवटिम फासुयं कयं चेव ।
सुकं पक्कं तत्तं अंबिल लवणेहि मिस्सियं दव्वं ।। "पाऊग एसणीयं तं भिक्खं मुणी पडिच्छंति ॥९-६०॥ जं जंतेण य छिण्णं तं सवं फासुय भाणियं.
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