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अङ्क १०-११]
हमारी शिक्षा-संस्थाएँ।
यदि वे कोई काम करना भी सीखे हैं तो वह संतानको पारसी महाराष्ट्र आदि अपने देशभाप्रायः अध्यापकी और उपदेशकी करना है। इयोंके समान तो अवश्य शिक्षित बना सके। ___ और देशोंकी बातको न लेकर जब हम अपने जैनसमाजने विद्याप्रेमियोंके कहनेसे लाखों देशवासियोंकी ओर देखते हैं तब हमें चकित रुपये शिक्षा प्रचारमें खर्च कर दिये और कर होना पड़ता है । अल्पवयस्क आर्यसमाजने रहा है, इसके एक नहीं अनेक विद्यालय खुल थोड़े ही दिनोंमें अपने तथा औरोंके हजारों चुके हैं जिनमें सैकड़ों समर्थ और असमर्थ छात्र बालकोंको प्राचीन तथा अर्वाचीन जगत्की शिक्षा पा रहे हैं । अनेक छात्रालय भी जारी हो बातोंका ज्ञाता बना दिया है। उनके कालेजों, चुके हैं । इतना होनेपर चाहिये तो यह था कि विद्यालयों तथा गुरुकुलोंमें बालक बालिका- समाज अपने कृत्यपर प्रसन्न होता और इस पर
ओंको धार्मिक और जीवन में काम आनेवाले मोपयोगी कार्यमें अधिक भाग लेता । परंतु अनेक विषयोंकी अच्छी शिक्षा दी जाती है। ऐसा नहीं हुआ। वह दिनोंदिन उदास होता इन संस्थाओंसे निकले हुए छात्र प्रायः स्वाभि- जाता है । जहाँ पाठशालाओंकी चर्चा छिड़ी मानी, निर्भीक, देशसेवक और स्वावलम्बी होते कि लोगोंके चेहरेपर उदासी झलकी । चंदेकी हैं। यह सब श्रेय उक्त समाजकी शिक्षापद्धति बात उठी कि खिसकनेका नंबर जारी हुआ। और संस्थाओंकी शासनप्रणालीको प्राप्त है। बड़ी कठिनाईसे रुपयेके देनेवाले आने दो दो उसके यहाँ सामाजिक संस्थाओंमें काम करने- आने चिट्रेपर चढ़ाते हैं । पाठशालाओंसे लोग वालोंकी कमी नहीं है । विपरीत इसके जैन- इतना क्यों चिढ़ते हैं ? सहायता देनेमें क्यों संस्थाओंमें इस बातका अकाल रहता है । हमें आगा पीछा करते हैं ? यदि ऐसा कहा जावे बराबर अपनी जैनसंस्थाओंके कार्यकर्ताओंसे कि वे अपने बालकोंको पढ़ाना नहीं चाहते, " पाठशालामें लड़के ही नहीं आते, पंच ध्यान अथवा उनके मनमें कृपणता बहुत बढ़ गई है, ही नहीं देते, सहायकों पर चंदा बकाया पडा है, तो यह ठीक नहीं जचता । कारण कि,ऐसे बहुवेतन थोड़ा है" इत्यादि बातोंका दुखड़ा सुनना तसे जैनी अपने लड़के लड़कियोंको, शिक्षा पड़ता है । और हजारों लाखोंका ध्रुवफंड रहते दिलानेके लिये, सरकारी पाठशालाओंमें भेजते भी संस्थासे संतोषप्रद फल नहीं निकलता। हैं और उनकी रुचि विद्याभ्यासमें बढ़ाने के लिये यद्यपि हम इन संस्थाओंमें बरबाद होनेवाले उन्हें प्रतिदिन मिठाई, फल, पैसा आदि देते रुपया पर समय समय पछतावा करते रहते हैं, रहते हैं। प्रतिवर्ष रथ चलाने, मंदिर बनवाने. तथापि पंचमकालके माथे सम्पूर्ण दोष मढ़ शिक्षा जीर्णोद्धार करने, औषधालय स्थापित करने और प्रबंधकी पद्धतिसे अपरिचित होनेके कारण और जीवदयाका प्रचार करने आदि धर्मकायही सोचकर खर्चकी धारा बहाये चले जाते ?में भी जैनी बहुत कुछ धन खर्च करते हैं, हैं कि शालाके रहनेसे भ्रमण करते हुए आने- इससे उनमें विद्याप्रेमका अभाव अथवा दानशी• वाले पंडित या धनी जन हमें कृपण तो न लताकी कमी कहना भारी भूल करना है। कहेंगे । हमारी पंचमकाल महाराजसे विनय है जैनियोंकी उदासीनताका कारण क्या है, कि आप इस शिक्षाविहीन जैन जातिपरसे इसकी खोज करनेकी ओर अभी समाजने अपनी शनि दृष्टि उठानेकी शीघ्र कृपा कीजिये, ध्यान नहीं दिया । समाजमें विद्वानोंके दो प्रधान ताकि यह जाति अधिक नहीं तो, अपनी ही दल हैं एक पंडितदल दूसरा बाबूदल । ये
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