Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 64
________________ ३४४ ... जैनहितैषी [भाग १४ wwwnwar चाहिये और बन सके तो कुछ प्रायाश्चत्त लेना रायमें विद्वानों, खासकर स्वप्नशास्त्रियोंको संपादकचाहिये, तभी उनके आत्माकी इस गुरुतर पापसे जीकी इस पुकार पर अवश्य ध्यान देना चाहिये शुद्धि हो सकेगी। ___ और दया करके उनके स्वमका फल बतलाते हुए ' अन्तमें हम पद्मावती पुरवालके संपादक तथा उनके चित्तका समाधान करना चाहिये। प्रकाशक दोनों महाशयोंसे निवेदन करते हैं कि वे ऐसे लेखोंको जरा सोच समझकर निकाला १०-विरुद्धप्रतीति। । करें, उनपर भी कुछ जिम्मेदारी है; केवल जैसे जैनहितैषीके गतांकमें : जगतकी रचना तैसे लेखोंको अँधाधुंध प्रकाशित कर देना कोई और उसका प्रबंध ' नामका जो लेख बाबू बरादुरीका काम नहीं है, बल्कि यह बात सूरजभानजी वकीलका लिखा हुआ छपा है संपादकीय धर्मके विरुद्ध है । ऐसे मिथ्या और जिसमें ईश्वरके जगतकर्तृत्वका निषेध असभ्य और ऊटपटाँग लेखोंसे उनके पत्रका किया गया है उसे हिन्दी जैनगजटके वयोवृद्ध कुछ भी गौरव नहीं रह सकता, और न समाजमें संपादक पं० रघुनाथदासजी 'विरुद्ध ' लिखते अशांति फैलनेके सिवाय दूसरा कोई नतीजा निकल सकता है । आप लोग जैसे विद्वान हैं । हैं ! जान पड़ता है उन्हें ऐसा ही प्रतीत हुआ है। न्यायतीर्थ और काव्यतीर्थ हैं-अपना पत्र भी परंतु मालूम नहीं उनकी इस विरुद्धप्रतीतिका आपको वैसे ही ऊँचे आदर्शपर रखना चाहिये। कारण क्या है । कहीं बाबूसूरजभानजीका विपक्षियों की बातोंका उत्तर आपके पत्र में बडी नाम ही तो उसका कारण नहीं ? अथवा ऐसा ही अँचीतुली और संयत भाषामें निकलना ता नहीं कि साधारण PL तो नहीं कि साधारण जैनजनताकी परणति • चाहिये । इससे आपके पत्रका गौरव बढ़ेगा . कर्तृत्ववादकी ओर झुकी हुई देखकर तथा क और समाजको भी उससे विशेष लाभ पहुँचेगा। लोगोंके व्यवहारोंको उसके अनुकूल पाकर पंडितजी भी कर्तृत्ववादको पसंद करते हों ~ ९ संपादक जैनगजटका स्वप्न। और इस लिये ऐसा लिखकर उसका विधान हालमें हिन्दी जैनगजटके संपादक पं . करनेके लिये तय्यार हुए हों। कुछ भी हो, विना नाथदासजीको, अमावस्याकी मध्यरात्रिके समय किसी विशेष बातका उल्लेख किये, साधारण जब कि उनकी प्रकृति अस्वस्थ थी, एक स्वप्न तौर पर संपूर्ण लेखके विषयमें ऐसा लिख देना हुआ है जिसमें उन्होंने देखा है कि जैनहितैषी समाजमें बहुत कुछ भ्रम पैदा करेगा, और दिगम्बर मतसे श्वेताम्बर मतको अधिक महत्त्व लोगोंको संपादकजीकी नीतिके समझनेमें बहुत दे रहा है और साथ ही जैनधर्मके विरुद्ध लेख कठिनाई होगी। आपने प्रेमीजीके लेखोंको भी लिखकर जैनसमाजका अहित कर रहा है ! इस विरुद्ध लिखा है, जिनमें हरिषेणकृत कथाकोश, आश्चर्यजनक और अभतपूर्व घटनाको देखकर श्रीअमृतचंद्रसूरि, लायब्रेरी, और प्राचीनग्रंथोंका सम्पादकमहाशय सहसा चकित हो उठे हैं और संग्रह नामके लेख शामिल हैं ! परंतु कुशल आपने विद्वन्मंडलीसे इस बातकी पुकार की है हो गई कि इस संयुक्तांकके संपादकीय लेखोंके कि वह सूक्ष्मदृष्टिसे उनके इस स्वप्न की जाँच मस्तक पर आपने विरुद्धताका कलंक नहीं करे; क्योंकि स्थल दृष्टि से हितैषीके सम्बंधमें लगाया। उन्हें ऐसा कुछ भी मालूम नहीं होता। हमारी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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