Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 47
________________ अङ्क १०-११] पुस्तकालयोंकी सहायता। ३२७ बुरा संचालन होना संभव है वह ग्रंथों द्वारा चढ़ते समय इसबातका ज्ञान प्राप्त करना होता जितना सहजसाध्य होता है उतना अन्य किसी है कि अपने इस जीवनको अच्छा किसप्रकारसे द्वारा नहीं बन सकता । जीवित और स्फूर्तिदा- बनाया जाय " यह बिलकुल सत्य है। यक ग्रंथसंग्रहालयमें जैसी शक्ति और सामर्थ्य है ३–'सार्वजनिक पुस्तकालय' समाजकी वैसी भला अन्य किस संस्थामें है ? ऐसी एक ही संस्था है कि जिसका द्वार सदा ___ २–'धर्मादाय' विभागमें आनेवाली जितनी मुफ्त रहता है और जो लोगोंको सर्व समयोंमें -संस्थाएँ हैं उनमें पुस्तकालयही एक ऐसी संस्था कुछ न कुछ देती ही है । हृष्टपुष्ट और निर्बलको, है जिसके सम्बंधमें मि० कार्नेगी सरीखे श्रीमानों तथा गरीबोंको, वृद्धों और युवकोंको, महा दानवीर पुरुषने कहा है “ यह किसीको जगतकी आवश्यकताओंको खोज करनेवालों कुछ भी मुफ्त नहीं देती और न भिखारी बनाती और जगत्के बन्धनोंसे मुक्त होनेवालोंको समान है।" दान करना एक बड़ा बिकट और धोखेका. भावसे देखनेवाली ऐसी पुस्तकालय ही एक कार्य है । किसीका भी सांपत्तिक कल्याण किया संस्था है । संपूर्ण समाजको समृद्ध बनानेवाले जाता है तो उसकी स्वतंत्रता, आत्मविश्वास, केवल पुस्तकालय ही हैं । अन्य धार्मिक संस्थाउपकार बुद्धि आदि गुण कुछ कुछ परिमाणम तो ओंके उद्देश कछ ही लोगोंको लाभ पहुँचानेवाले अवश्य ही हुए विना नहीं रहते; और इन होते हैं, परन्तु पुस्तकालय बहुतों क्या, सभी सब गुणोंका मूल्य मिले हुए दानकी अपेक्षा लोगोंको लाभ पहुँचाते हैं। बहुत अधिक होनेके कारण वे गुण उससे न ४-किसी भी नगर या ग्राममें एकता और , छुड़ाकर उसका कल्याण करना महा विकटसे प्रेम बढ़ानेवाला सार्वजनिक पुस्तकालयके समान विकट है । अस्पताल, यंगमेन्स क्रिश्चियन एसो सिएशन, अनाथालय आदि संस्थाओंके कारण अन्य दूसरा प्रबल साधन नहीं है । दूसरी ऐसे गुणोंके अपहरण होनेका बारबार भय रहता संस्थाओंके कारण समाजमें भेद और पंथ उप स्थित होते हैं, अनेक समाजों तथा जातियोंमें है । पर सार्वजनिक पुस्तकालय लोगोंको जो कुछ अमूल्य निधि अर्पण करता है उसकी तड़ (धड़े) पड़ जाते हैं। समाजमें एकमत और प्राप्तिके लिये लोगोंको जितनी मानसिक शक्ति - एक विचार होनेके मार्गमें वे संस्थाएँ बाधक हो बैठती हैं । पर सार्वजनिक पुस्तकालय पर समाजऔर शारीरिक श्रमका व्यय करना पड़ता है, की सर्व जातियोंका चाहे उनमें परस्परमें कितउसीके मानसे वह निधि उनको श्रीमान बनाती " ना ही मतभेद, आदि क्यों न हो, समान है । पुस्तकालय अपना भंडार ऐसे ही व्यक्तियोंको । प्रेम रहता है । किसी भी समाजमें सामाजिक खोलकर देता है जो उसे अपनानेका परिश्रम केन्द्र बननके लिए सार्वजनिक पुस्तकालय करते हैं । इस लिये सब धार्मिक दानोंमें पुस्तकालय (शास्त्रदान ) का हक अद्वितीय और नामकी संस्था सब प्रकारसे योग्य है। अशंकनीय है, ऐसा ही कहना उचित है । कार्ने- ५-सार्वजनिक पुस्तकालयोंमें जो खर्च गीने जो कहा है कि “ सब लोगोंके लिये मुफ्त होता है वह उनके द्वारा प्राप्त हुए नैतिक, खुले हुए सार्वजनिक पुस्तकालय मुफ्त कुछ भी बौद्धिक और सामाजिक हितके कारण ही नहीं नहीं देते, किन्तु प्रत्येक वाचक वृंदको स्वयं किन्तु उनके द्वारा होनेवाले प्रत्यक्ष सांपत्तिक अपने ज्ञानसोपान पर चढ़ना पड़ता है और लाभोंके कारण भी उचित समझा जाना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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