Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 58
________________ ३३८ - जैनहितैषी - [भाग १४ दर्जेमें बहुत ऊँचे गिने जाने चाहिए । हम विविध प्रसङ्ग । अपनी गृह-व्यवस्था भी क्या किया करते हैं ? आपने कभी कोई ऐसा गृहस्थ देखा है जो केवल :सोने और हीरे मोतियोंको ही घरमें रखता. १-जातिबहिष्कारके सम्बंधमें हो और लोहे पीतलकी चीजोंको पास भी न सोमदेवसूरिके विचार । आने देता हो ? यह ठीक है कि वह सोनेको तिजोरीमें रक्खेगा, चाँदीको आलमारीमें रक्खेगा. भारतकी उच्च जातियोंमें पंचायतोंकी हालत पीतल ताँबेको मँडवे पर रक्खेगा और लोहेकी प्रायः बड़ी ही शोचनीय है । वे अपने अविवेक तथा मिट्टीकी चीजोंको जहाँ तहाँ-जरूरत पड़ने और पक्षपातादि दूषणोंके कारण समाज परसे पर बाहरके आँगन तकमें-रख देगा: परन्त जरू- अपनी सत्ता-अपना प्रभुत्व-उठा चुकी हैं, उनका रत उसे इन सभी चीजोंकी पड़ेगी-इनके प्रभाव समाजके व्यक्तियों पर अब बहुत कम बिना वह अपना काम नहीं चल सकेगा । ऐसी अवशिष्ट है। यही वजह है कि देशमें दिन ऐसी सीधी सादी बातें भी ये धर्मशास्त्रोंके पन्ने पल- पर दिन मुकदमेबाजी बढ़ती चली जाती है टनेवाले नहीं समझते और इतने पर भी समाजके. और उससे उसकी बहुत कुछ पतन हो रहा है। नेता और शास्त्रोंके उपदेशक बनने चलते हैं। जैन पंचायतोंकी हालत और भी ज्यादह खराब हमारी समझमें तो शास्त्रोंके अर्थ भी इन लोगोंके है। जिसके जो जीने आता है-विना सोचे समझे. दो अंगलके मास्तिष्कोंमेंसे विकृत हो कर ही बाहर विना गहरा परामर्श किये और विना अपना निकलते होंगे और इस कारण ऐसे उपदेशकोंको सत्ताका विचार किये वह उसे सहसा कर डालती समाजके लिए सदा भयंकर ही समझने चाहिए।" है और फल पर कुछ भी दृष्टि नहीं रखती। नतीजा जिसका यही होता है कि या तो पंचा- ईश्वर उनकी मदद करता है जो अपनी मदद यतकी वह तजवीज कागजोंमें ही रक्खी रह आप करते हैं-God helps those who help themselves, यह जिस महात्माका वचन है उसे जाती है-उस पर कुछ भी अमल नहीं होताइस बातका अनुभव हो चुका था कि और या उसके द्वारा समाज तथा धर्मको बहुत वास्तवमें कोई एक ईश्वर या परमात्मा जगतका बड़ी हानि उठानी पडती है। इन दोनों ही बातोंकर्ता ही नहीं है । परंतु जिस वातावरणमें के बहुतसे उदाहरण दिये जा सकते हैं। परंतु वह साँस लेता था. जिन लोगोंमें उसे जीवन यहाँ पर हम पंचायतोंकी हालतको दिखलाने व्यतीत करना था और जिनका हित करना और उनके कार्याकार्य पर विवेचन करना नहीं उसे इष्ट था, उनकी परिस्थिति उस समय ऐसी चाहते; हमारा अभिप्राय इस समय सिर्फ इतना नहीं थी कि वह परमात्माके कर्ताहर्तापनके र ही बतलानेका है कि जैनपंचायतोंने जातिबहिविरुद्ध कुछ जबान खोले और उससे कोई लाभ ·ष्कार नामके तीक्ष्ण हथियारको जो खिलौनेकी उठाए । इसीलिये उसको लोगोंमें स्वावलम्बनका तरह अपने हाथमें ले रक्खा है और, विना उसका भाव पैदा करनेके लिये उपर्युक्त सूरत अख्तियार . करनी पड़ी थी-अपने उपदेशके साथमें एक र प्रयोग जाने तथा अपने बलादिकको समझे, ऐसा गरुमंत्र लगाना पडा था जिससे जनता - जहाँ तहाँ यद्वा तद्वा उसका व्यवहार किया केवल ईश्वरके भरोसेपर ही रहकर अकर्मण्य न जाता है वह धर्म और समाजके लिये बड़ा ही बन जाय । -खंडविचार। भयंकर तथा हानिकारक है । श्रीसोमदेव आचार्य अपने 'यशस्तिलक' ग्रंथमें लिखते हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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