Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 37
________________ अङ्क १०-११ j इस गाथामें कंदमूलादिककी छाल (त्वचा) के सम्बंध में एक विशेष नियम दिया है और यह बतलाया है कि जो छाल ज्यादह मोटी होती है उसे अनंतकाय और जो ज्यादह पतली होती है उस छालको प्रत्येक जानना चाहिए । इससे यह पाया जाता है कि कंदमूलादिक अपने सर्वांगरूपसे अनंतकाय अथवा प्रत्येक नहीं होते, उनमें उनकी छालसे विशेष रहता है - अर्थात्, कोई कंदमूलादिक ऐसे होते हैं जिनकी छाल अनंतकाय होती है. परंतु वे स्वयंभीतर से अनंतकाय नहीं होते और कोई कोई ऐसे भी होते हैं जो खुद भीतरसे तो अनंतकाय होते हैं परंतु उनकी छाल अनंतकाय नहीं होती, वह प्रत्येक ही रहती है । शास्त्रीय चर्चा | इसके बाद गोम्मटसार में एक अपवाद नियम और भी दिया है और वह यह है कि ये कंदमूलादिक ( 'आदि' शब्दसे प्रथम गाथोक्त छाल, कोंपल, शाखा, पत्र, पुष्प, फल और बीज • सभी ग्रहण करने चाहियें ) अपनी प्रथमावस्था में प्रत्येक होते हैं । यथाः— जेविय मूलादीया ते पत्तेया पढमदाए ॥ यह नियम इस बातको सूचित करता है कि कंदमूलादिक-चाहे वे समभंग हों या न हों, उनकी छाल मोटी हो अथवा पतली-अपनी प्रथमावस्थामें सब प्रत्येक होते हैं । उत्तरकी अवस्थाओंमें वे प्रत्येक भी होते हैं और अनंतकाय भी और उनकी खास पहिचान ऊपर बतलाई गई है । नतीजा इस सारे कथनका यह निकलता है कि सभी कंदमूल अनंतकाय नहीं होते, न सर्वागरूपसे ही अनंतकाय होते और न अपनी सारी अवस्थाओं में अनंतकाय रहते हैं । बल्कि वे प्रत्येक और अनंतकाय ( साधारण ) दोनों प्रकारके होते हैं; किसीकी छाल ही अनंतकाय होती है, भीतरका भाग नहीं और किसीका भीतरी भाग अनंतकाय होता है तो छाल अनंतकाय नहीं होती; कोई बाहर भीतर सर्वांगरूप से अनंतकाय होता है और कोई इससे बिलकुल विपरीत कतई अनंतकाय नहीं Jain Education International ३१७ होता; इसी तरह एक अवस्थामें जो प्रत्येक है वह दूसरी अवस्थामें अनंतकाय हो जाता है और जो अनंतकाय होता है वह प्रत्येक बन जाता है । प्रायः यही दशा दूसरी प्रकारकी वनस्पतियोंकी भी है। वे भी प्रत्येक और अनंतकाय दोनों प्रकारकी होती हैं--आगममें उनके लिये भी इन दोनों भेदोंका विधान किया गया है-जैसा कि ऊपर के वाक्योंसे ध्वनित है और मूलाचारकी निम्नगाथाओंसे भी प्रकट है, जिनमें पहली गाथा गोम्मटसारमें भी नं० १८५ पर दी है: मूलग्गपोरवाजा कंदा तह खंधबीजबीजरुहा । समुच्छिमा य भणिया पत्तेयाणांतकाया य ॥२१३॥ कंदा मूला छल्ली खंधं पत्तं पवालपुप्फफलं । गुच्छा गुम्मा वल्ली तणाणि तह पव्वकायाय २१४ ऐसी हालत में कंद-मूलों और दूसरी वनस्पतियोंमें अनंतकायकी दृष्टिसे आमतौर पर कोई विशेष भेद नहीं रहता । अतः जो लोगअनंतकायकी दृष्टिसे कच्चे कंदमूलोंका त्याग करते हैं। उन्हें इस विषय में बहुत कुछ सावधान होने की जरूरत है। उनका संपूर्णत्याग विवेकको लिये हुए होना चाहिये । अविवेकपूर्वक जो त्याग किया जाता है वह कायकष्टके सिवाय प्रायः किसी विशेष फलका दाता नहीं होता । उन्हें कंदमूलों के नाम पर ही भूलकर सबको एकदम बातकी जाँच करनी चाहिये कि कौन कौन अनंतकाय न समझ लेना चाहिये; बल्कि इस कंदमूल अनंतकाय हैं और कौन कौन अनंतका नहीं हैं. किस कंदमूलका कौनसा अवयव अनंतकाय है और कौनसा अनंतकाय नहीं हैं, साथ ही यह भी कि किस किस अवस्थामें वे अनंतकाय होते हैं और किस किसमें अनंतकाय नहीं रहते । अनेक वनस्पतियाँ भिन्न भिन्न देशोंकी अपेक्षा जुदा जुदा रंग, रूप, आकार, प्रकार और गुण-स्वभावको लिये हुए होती हैं । बहुतों में वैज्ञानिक रीतिसे अनेक प्रकारके परिवर्तन कर दिये जाते हैं । नाम-साम्यकी वजहसे उन सबको एक ही लाठीसे नहीं हाँका जा सकता । संभव है कि एक देशमें जो वनस्पति For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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