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अङ्क १०-११ ]
'उत्स कार्यकर्माणि भावं च भवकारणं । स्वात्मावस्थानमव्यग्रं कायोत्सर्गः स उच्यते ॥ "
दुष्प्राप्य और अलभ्य जैन ग्रंथ ।
यह पय मणिकचंदग्रन्थमालाद्वारा प्रकाशित उक्त तत्त्वानुशासनमें नहीं है । और इस लिये यह किसी दूसरे ही तत्त्वानुशासनका पद्य है, ऐसा कहने में कुछ भी संकोच नहीं होता । पद्यपरसे ग्रंथ कुछ कम महत्त्वका मालूम नहीं होता । संभव है कि जिस तत्त्वानुशासनका उक्त पय है वह स्वामी समंतभद्राचार्यका ही बनाया हुआ हो । यदि ऐसा हो और वह ग्रंथ उपलब्ध हो जाय तो उसे जैनियोंका महाभाग्य समझना चाहिये; क्योंकि स्वामी समंतभद्रके ग्रंथ प्रायः बड़े ही महत्त्वशाली और अद्वितीय होते हैं । हमारे खयालसे, समंतभद्रके दूसरे मूल ग्रंथों की तरह यह ग्रंथ भी आकार में छोटा होगा । और किसी गुटके आदिमें तलाश करनेसे मिलेगा । जिनवाणी के भक्तोंको चाहिये कि वे अपने अपने यहाँ के शास्त्रभंडारोंमें इस ग्रंथरत्नकी जरूर तलाश करें और कुछ परोपकारी भाइयोंको समन्तभद्रके तत्वानुशासन पर पारितोषिक भी निकालना चाहिये ।
एक तत्वानुशासन नागचंद्र मुनिका भी बनाया हुआ कहा जाता है और जैनग्रन्थावली में उसकी श्लोकसंख्या पाँच हजार दी है । मालूम नहीं यह कहाँके भंडारमें मौजूद है, इसकी भी तलाश होनी चाहिये । ( क्रमशः )
तत्त्वानुशासन के कर्ता ।
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जो
हुआ
मुनि
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माणिकचंद - दिगम्बर जैन ग्रंथमाला में तत्वानुशासन ' नामका ग्रंथ प्रकाशित है उसमें उसके कर्ताका नाम ' नागसेन दिया है | और ग्रंथके परिचय में वीरचंद्रदेव, शुभचंद्रदेव तथा महेंद्रदेवको नागसेन के विद्यागुरु और विजयदेवको दीक्षागुरु प्रकट किया है ।
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यह सब जिस आधारपर प्रकट किया गया वह ग्रंथकी प्रशस्तिके निम्नलिखित दो पद्य हैं:श्रीवीरचंद्रशुभदेवमहेंद्रदेवाः
शास्त्राय यस्य गुरवो विजयामरश्च । दीक्षागुरुः पुनरजायत पुण्यमूर्तिः श्रीनागसेन मुनिरुद्यचरित्रकीर्तिः ॥ २५६ ॥
तेन प्रवृद्धधिषणेन गुरूपदेशमासाद्य सिद्धिसुखसंपदुपायभूतं । तत्त्वानुशासनमिदं जगतो हिताय श्रीनागसेनविदुषा व्यरचि स्फुटार्थे ॥ २५७ ॥
बम्बई के मंदिर की जिस एक मात्र प्रतिपरसे यह ग्रंथ छपाया गया है संभव है कि उसमें ये दोनों पय इसी प्रकारसे दिये हों । परंतु जयपुर से हमने एक प्राचीन शुद्ध प्रति मँगाकर उसपरसें इस ग्रंथका जो मीलान किया तो मालूम हुआ कि उसमें प्रशस्तिके दूसरे पयके अन्तिम चरण में ' नागसेन ' के स्थान में ' रामसेन पाठ दिया है। आरके जैन सिद्धान्तभवनका यही तत्त्वानुशासन, जिसे सूचीमें गलतीसे ‘श्रीरामेश्वर का बनाया हुआ लिखा है और जिस
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कारण हमें बहुत कुछ लिखा पढ़ी करनेका कष्ट उठाना पड़ा, इस समय कलकत्ते में है । कुमार देवेंद्रप्रसादजीने उस परसे जो एक नकल उतरवाकर हमारे पास भेजी है उसमें भी, इस चरण में, नागसेनकी जगह रामसेन ही पाठ दिया है । इस पाठके अनुसार दोनों पद्योंका अर्थ यह होता है कि - ' श्रीवीरचंद्र, शुभदेव, महेंद्रदेव और विजयदेव ये चारों जिसके शास्त्रगुरु अर्थात् विद्यागुरु थे और फिर पुण्यमूर्ति तथा उद्यचरित्रकीर्ति ऐसे श्रीनागसेन नामके मुनि जिसके दीक्षागुरु हुए उस प्रबुद्धबुद्धि श्रीरामसेन नामके विद्वानने गुरूपदेशको पाकर, यह सिद्धसुखसंपदाका उपायभूत और स्फुट अर्थको लिए हुए तत्त्वानुशासन नाम
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