________________
अङ्क १०-११)
दुष्प्राप्य और अलभ्य जैनग्रंथ।
__३११२
दुष्प्राप्य और अलभ्य जैनग्रंथ ।
सदा रस्गा साथ धैर्य अब खो न प्रिये तू;
आगेको यों कष्ट बीज अब बो न प्रिये तू । तुमसे इसके बादमें, हाय न कुछ बोला गया; . दुखोद्रेकसे तनिक भी हृदय म फिर खोला गया ।
२१ सत्यशासन-परीक्षा । तबतक मैं चेतना-हीन हो गई प्रेमधन !
जैनसिद्धान्तभवन आराकी सूचीपरसे मालूम रही चेतना-रहित न जाने में कितने क्षण । पर सचेत हो उठी शीघ्र ही जब घबरा कर
हुआ कि 'सत्यशासनपरीक्षा' नामका भी कोई और गिर पड़ी पुनः भीतसे मैं टकरा कर । जैनग्रंथ है । नामपरसे यह ग्रंथ अश्रुतपूर्व मालूम आँखें मेरी खुल गई, सपना सपना हो गया। होता था और ऐसा खयाल होता था कि शायद प्रलय हुआ पलमात्रमें, सरवस अपना खो गया ॥
विद्यानंदस्वामीका बनाया हुआ हो । अतः देखपूर्व दिशा थी लोहेत चिड़ियाँ चहक रही थी; नेकी उत्कंठा उत्पन्न हुई और भवनके मंत्री कलियाँ खुल खुल डुल डुल कर सब महक रहीं थीं। साहबको उसके भेजनेके लिये लिखा गया । तरुओं पर मृदु ललित लताएँ लहक रही थीं; परंतु भवनमें ग्रंथकी एक ही प्रति होने आदिके प्रातः पवनें खेल खेलमें बहक रही थी।
__कारण मंत्रीसाहबने उसके न भेजनेके लिये यों वे मेरे घावपर, नमक सभी थी डालती, अथवा 'हा-ही स्वप्न पर, थीं दुष्टाएँ घालती ॥ मजबूरी जाहिर की और यह लिखा कि
लेखकका प्रबंध करके उसकी कापी करा दी _ क्या करती कुछ जोर नहीं था, बस रो आया; जावेगी । भवनमें एक विद्वान् कर्कके आजाने
मर जाऊँ अविलम्ब यही मनमें हो आया। कहा प्राणसे--प्राण ! कहाँ लों कष्ट सहोगे ?
पर हालमें; उक्त ग्रंथका जो परिचय मँगाया तन-पंजरके संग कहाँलों और रहोगे? गया उससे मालूम हुआ कि यह विद्यानंद करती हूँ मैं प्रार्थना-तनका मोह विसार दो।। स्वामीका बनाया हुआ एक न्यायका ग्रंथ है। और दुःख-दावाग्निसे कृपया अब निस्तार दो ॥
इसका मंगलाचरण इस प्रकार है:. • पर सुन लो अब जन्म न तुम नारीका लेना; विद्यानन्दाधिपः स्वामिर्विद्व-देवो जिनेश्वरः। लेना तो मत भूल पैर भारतमें देना।
यो लोकैकहितस्तस्मै नमस्तात्स्वात्मलब्धये ॥१॥ देना हो जो पड़े कभी तो जैन न होना;-- क्या जानें जो पड़े पुनः ऐसा ही रोना ।
ग्रंथके अन्तमें प्रशस्ति आदि कुछ नहीं है, कर दे तुमको जैन ही, वह अदृष्ट यदि अदय हो। बाल्क वह अपूर्ण और अधूरा मालूम होता है। जन्म उधर लेना जिधर, विजयित नय हो हृदय हो॥ उसका अन्तिम भाग इस प्रकार है:(१३)
"न हि भिन्नदेशासु व्यक्तिषु सामान्यमेकं यथा स्थूणादिषु हे अदृष्ट तुम घोर नरकके दुख दिखलाओ;
वंशादिरितिप्रतीयते यतो भिन्नदेशस्वाधारवृतित्वे सत्येकत्वं पर, नारीको, हाय ! कभी विधवा न बनाओ।
तस्य सिद्धयत् स्वाधारान्तरालेऽस्तित्वं साधयेदिति और बनाओ ही तो इतनी दया दिखाओ:- .
तदेवमनेकबाधकसद्भावात् भाप्राभाकरैरिटम ।" उसकी आँखें और हृदय यों गढ़ो गढ़ाओ ।जो कि देखते हुए भी, देखे वह कुछ भी नहीं। ग्रंथके शुरूमं परीक्षाके लिये जिन शासनोंका और जानते हुए भी, जाने वह कुछ भी नहीं ॥ नामोल्लेख किया गया है उनका द्योतक वाक्य
इस प्रकार है:
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org