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जैनहितैषी
[भाग १४
सीमन्धर स्वामीद्वारा प्राप्त दिव्यज्ञानके द्वारा बोध देख रही थी स्वप्नमें, भोजन मुझको मिल गया । न देते तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ? यद्यपि भूख मिटी नहीं, तो भी था मन खिल गया। इससे यह भी निश्चय हो जाता है कि वे श्रीकु
आहा बासी भात ! रोटियाँ जिनपर घी था: न्दकुन्दाचार्यकी आम्नायमें थे।
चौलाईका साग! मिष्ट सुस्वाद सभी था। __ भावसंग्रह ( प्राकृत ) में जगह जगह ज्योंकी त्यों थी भूख खुब था यद्यपि खाय दर्शनसारकी अनेक गाथायें उद्धत की गई हैं पानी पीकर एक ओरको पैर बढ़ाया। और उनका उपयोग उन्होंने स्वनिर्मित गाथा- देखा, ओहो सामने, चले श्वसुरजी जा रहे । ओंकी भाँति किया है। इससे इस विषय में कोई उनके पीछे जेठजी धीरे धीरे आ रहे ॥
(४) संदेह नहीं रहता कि दर्शनसार और भावसंग्रह
जेठानी भी एक हाथ सासका पकड़ेदोनों के कर्ता एक ही देवसेन हैं।
और एकसे प्रिय कृष्णाके करको जकड़ेइनके सिवाय आराधनासार और तत्त्वसार । उनके पीछे चली आ रही हैं इतरातीनामके ग्रंथ भी इन्हीं देवसेनके बनाये हुए हैं। मुसका करके किसी विषय पर कुछ बतराती । पं. शिवजीलालने इनके 'धर्मसंग्रह' नामके। सबकी नजरें थीं पड़ी, चढ़ी सभीकी भृकुटियाँ
हा कपाल ! हैं बन गई, मुझसे क्या क्या कुत्रुटियाँ । "एक और ग्रंथका उल्लेख किया है; परंतु वह अभीतक हमारे देखनेमें नहीं आया है।
याद तुम्हारी आजाने पर जी मसोस कर
मैं थी रोने लगी भाग्यको कोसकोस कर;स्वप्न-सर्वस्व ।
वे सुख, वे आनन्द और वे प्यारी बातें
वे गहने, वे वस्त्र और वे रसमय घातें-- (ले०-भगवन्त गणपति गोइलीय।) क्या हो गई पता नहीं, कहाँ गया सुख साज सब
एक तुम्हारे ही बिना नरक हुआ जग आज सब क्यों आये थे निठुर इस तरह मुझे जलाने ? मुझ दुखिनीके लिए सदयता यों दिखलाने ।
ऐसा कह कह जभी प्रभो ! मैं विलप रही थी; ... शान्तिप्रदा वह नींद लगी थी कुछ कुछ आने । इस अभाग्य पर फूट फूट रो-कलप रही थी। और कष्टसे उठा शान्तिसुखमें पहुँचाने।
परम दीप्ति-संयुक्त निकट, तुम मेरे आए; सच कहती हूँ उससमय, मुझे न कुछ भी ध्यान था। झपक गए दृग तुम्हें भली विधि देख न पाए। कहाँ पड़ी हूँ ? कौन हूँ ? तनिक न इसका भान था ॥ तुमने ठोड़ी पकड़कर कहा-"प्रिये क्यों रो रही?
मैं हूँ तेरे सामने, बिकल भला क्यों हो रही?" वर्षा थी हो रही रात थी सूब अँधेरी; टपटप थी चू रही कोठरी सारी मेरी।
चौंक उठी फिर वदन तुम्हारा तनिक निहारा; इस कथरीपर फटी खौरको मैं सिमटाए
इतनेमें बह चली तीव्र लोचन-जल-धारा ।
जितना जितना यत्न रोकनेका करती थी; - सोती थी, यह एक हाथ उपधान बनाए ।
उतना उतना तावेगसे वह झरती थी; १ भावसंग्रह 'माणिकचंद-ग्रंथमाला में शीघ्र ही पिघल गया था हृदय या वर्षाका नव-ढंग था ! "छपनेवाला है। प्रेसमें दिया जा चुका है।
घनों दृगोंकी होड़का अथवा विकट प्रसंग था ! २ माणिकचंद ग्रंथमालाका छठा ग्रंथ-श्रीरत्ननन्दि
(८) आचार्यकृत टोकासहित छपा है।
तुमने भरकर अंक कहा-अब रो न प्रिये तू; ३ मा० . मालाके १३ वें अंकमें यह छप चुका है। तुझे तनँगा नहीं विकल अब हो न प्रिये तू।
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