Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww.. अङ्क १०-११] नयचक्र और श्रीदेवसेनसूरि। ३०९ कर्ता हैं-नमस्कार करो । यदि इस ग्रंथके पुवायरियकयाहं गाहाई संचिऊण एयत्थ । कर्ता स्वयं देवसेन होते तो वे अपने सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संवसंतेण ॥ ४९॥ लिये गुरु आदि शब्दोंका प्रयोग न करने और रइओ दंसणसारो हारो भब्वाण णवसए नवए। न यही कहते कि तुम उन देवसेनको और सिरिपासणाहगेहे सुविसुद्धे माहसुद्धदसमीए ॥५०॥.. उनके नयचक्रको नमस्कार करो । अर्थात् पूर्वाचार्योंकी रची हुई गाथाओंको एक जगह संचित करके श्रीदेवसेन गणिने धारा___ इन सब बातोंसे सिद्ध है कि छोटे नयचक्रके नगरीमें निवास करते हुए पार्श्वनाथके मंदिरमें कर्ता ही देवसेन हैं और माइल्लधवल उन्हींको माघ सुदी दशवीं विक्रम संवत् ९९० को लक्ष्य करके उक्त प्रशंसा करते हैं । माइल्लधवलने यह दर्शनसार नामक ग्रन्थ रचा । इससे देवसेनसूरिके पूरे नयचक्रको अपने इस ग्रन्थमें निश्चय हो जाता है कि उनका अस्तित्वकाल. अन्तर्भित कर लिया है, ऐसी दशामें उनका विक्रमकी दशवीं शताब्दि है । अपने अन्य इतना गुणगान करना आवश्यक भी हो गया है। किसी ग्रन्थमें उन्होंने ग्रंथ-रचनाका समय नहीं, ___ माइल्लधवलने इसके सिवाय और भी कोई दिया है। ग्रंथ बनाये हैं या नहीं और ये कब कहाँ हुए यद्यपि इनके किसी ग्रन्थमें इस विषयकाहैं, इसका हम कोई पता नहीं लगा सके। उल्लेख नहीं है कि वे किस संघके आचार्यआश्चर्य नहीं जो वे देवसेनके ही शिष्योंमें हों, थे; परन्तु दर्शनसारके पढ़नेसे यह बात स्पष्ट जैसा कि मोरेनाकी प्रतिकी अंतिम गाथासे और हो जाती है कि वे मूलसंघके आचार्य थे। देवसेनके लिए श्रेष्ठ गुरु शब्दका प्रयोग देखनेसे दर्शनसारमें उन्होंने काष्ठासंघ, द्रविडसंघ, माथुजान पड़ता है। -रसंघ और यापनीयसंघ आदि सभी दिगम्बरदेवसेनसूरि । संघोंकी उत्पत्ति बतलाई है और उन्हें मिथ्याती ___ कहा है; परन्तु मूलसंघके विषयमें कुछ नहीं कहा? नयचक्रके संबंधमें इतनी आलोचना करके है। अर्थात् उनके विश्वासके अनुसार यही मूल-: अब हम संक्षेपमें इसके कर्ता देवसेनसूरिका परि- से चला आया हुआ असली संघ है। चय देना चाहते हैं । इनका बनाया हुआ एक दर्शनसारकी ४३ वी गाथामें लिखा है 'भावसंग्रह ' नामका ग्रन्थ है। उसमें वे अपने कि यदि आचार्य पद्मनन्दि ( कुन्दकुन्द ) विषयमें इस प्रकार कहते हैं: १-पूर्वाचार्यकृता गाथाः संचयित्वा एकत्र।। सिरिविमलसेणगणहरसिस्सो श्रीदेवसेनगणिना धारायां संवसता ॥ ४९ ॥ णामेण देवसेणुत्ति। २-रचितो दर्शनसारोहारो भव्यानां नवशते नवती। अबुहजणबोहणत्थं तेणेयं विरइयं सुत्तं ॥ श्रीपाश्वनाथगेहे सुविशुद्ध माघशुद्धदशम्याम् ॥५०॥ इससे मालूम होता है कि इनके गुरुका नाम ३-दर्शनसारकी अन्य गाथाओंमें जहाँ जहाँ संव-. श्रीविमलसेन गणधर (गणी) था । दर्शनसार त्का उल्लेख किया है, वहाँ वहाँ 'विक्कमरायस्स मरणपनामक ग्रन्थके अंतमें वे अपना परिचय देते हुए तस्स' पद देकर विक्रम संवत् ही प्रकट किया है। लिखते हैं: इसके सिवाय धारा (मालवा ) में प्रायः विक्रम संवत ही प्रचलित रहा है। १-श्रीविमलसेनगणधरशिष्यः नामेन देवसेन इति । ४ जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । अबुधजनबोधनार्थे तेनेदं विरचितं सूत्रं ॥ ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66