Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 5
________________ अङ्क १०-११] जैनसमाजके शिक्षित। भाँति सिद्ध होती है कि चारित्र मार्गके नियमोंमें जैनसमाजके शिक्षित । समयानुकल परिवर्तन प्राचीन परंपरासे होते । आ रहे हैं। किन्त चारित्रकी मूल नींव-नीति- (खासकर, बाबूलोग।) नष्ट नहीं हुई और न इसे कभी नष्ट ही होने देना चाहिये । नीतिकी उत्कृष्टता ही व्यक्ति, समाज, देश और धर्मको उज्ज्वल करती है। जिस (ले०-श्रीयुत बाबू सूरजभानजी वकील ।) ..व्यक्तिमें जितना अधिक नैतिक बल होगा उतना . प्रत्येक जातिकी उन्नति उसके पढ़े लिखे ही वह व्यक्ति पूज्य और मोक्षमार्गका अनुगामी बनता जायगा । समाज और देशकी नीति . विद्वानों और समझदारों पर ही निर्भर होती जितनी उदार, पक्षपातरहित, सत्यमार्ग पर अव- है । वे ही संसारकी गतिको, जातिकी वास्तविक लंबित होगी उतना ही उस समाज और देशका . दशाको, और उसे उन्नति शिखर पर चढ़ाने मुख उज्ज्वल होता रहेगा। कोई भी देश और समयोचित उपायोंको जान सकते हैं और वे ही समाज कितना ही धनवान् और शिक्षित क्यों. उन उपायोंका जातिमें प्रचार तथा प्रसार कर न हो, यदि वह आध्यात्मिकताके भाव और नीति- सकते हैं। हमारी इस जैनजातिमें भी विद्वानोंकी पथसे गिरा हुआ हो तो उसकी उन्नति नहीं बल्कि कमी नहीं है । भारतवर्षकी ३० करोड़ प्रजामें अधोगति ही समझिये। उसी प्रकार धर्मको यद्यपि जैनियोंकी संख्या केवल बारह लाख ही उत्कृष्टताकी कसोटीपर जाँचने के लिये प्रत्येक रह गई है अर्थात भारतके २५० मनष्यों में धर्मकी नीति जाँच कर ही तुलना होती है। जिस केवल एक ही जैनी है, और यह १२ लाखधर्म में नीति जितने अधिक परिमाणमें होती है, की संख्या भी तब ही है जब कि संपूर्ण दिगम्बर, वह धर्म उतना ही अधिक उत्कृष्ट गिना ताम्बर और स्थानकवासियोंको इकट्रा गिन जाता है । अहिंसा, सत्य आदि पंच अणवत और महावत आदि जैनधर्मकी नीति के मूल सिद्धांत लिया जाता है । यदि प्रत्येक सम्प्रदायवाले हैं, परन्तु इस समय जैनियोंमें कोई भी ऐसा केवल अपनी ही सम्प्रदायके लोगोंको जैनी गृहस्थ या त्यागी नहीं निकला जो अपने धर्म- मानें और दूसरोंको मिथ्याती जानें, जैसा कि की नीतिको समयानुकल वर्तावमें लाकर धर्मका आजकल हो रहा है, तब तो उनकी गणनाके मुख उज्ज्वल करता । परन्तु, धन्य है कर्मवीर अनुसार जैनी केवल ४ लाख ही रह जाते हैं महात्मा गाँधीको-जिन्होंने अजैन होते हुए भी अर्थात् भारत के ७०० मनुष्योंमें केवल एक ही अहिंसा और सत्यके सिद्धांतको अपनाकर, उसे जैनी गिनने में आता है । आजका हमारा यह समयानुकूल स्वरूप देकर, अपने देशके उद्धारमें लेख भी दिगम्बर सम्प्रदायके ही विषयमें होनेके लगाते हुए संसार भरको चकित कर दिया है। कारण हम भी इस लेखमें दिगम्बर जैनियोंको इसी समयानुकूल परिस्थितिके अनुसार हमें अब ही जैनी मानते हैं और उनकी संख्या ज्यादासे अपने धर्मनीतिके प्रायः सभी नियम उपनियम ज्यादा ५ लाख अनुमान करके भारतके ६०० , बदलने होंगे और उन्हें समाज और देशकी मनुष्योंमें एक जैनीकी गणना करते हैं । इस वर्तमान गतिके अनुकूल व्यापक स्वरूप देना। प्रकार, इस समय, यद्यपि जैनियोंकी संख्या होगा, ताकि हमारी धार्मिक और लौकिक उन्नति उन्हीं व्यापक नियमों पर चलनेसे एक ही बार बहुत ही थोड़ी बल्कि न होनेके ही समान रह . • साथ होती रहे। गई है तो भी अपनी इस थोड़ीसी संख्याकी अपेक्षा इस जातिमें विद्वानोंकी कमी किसी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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