Book Title: Jain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 26
________________ ___३०६ जैनहितैषी [भाग १४ मल्लवादिके ग्रंथको पढ़नेकी सिफारिश की हो, 'पूनामें इस ग्रन्थकी एक प्रति है, उसके अन्तमें तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं है । जिस तरह प्रतिलेखकने लिखा है-" इति सुखबोधार्थमालासिद्धसेनसूरि तार्किक थे उसी तरह मल्लवादि पपद्धतिः श्रीदेवसेनविरचिता समाप्ता । इति भी थे और दिगंबर और श्वेतांबर संप्रदायके श्रीनयचक्र सम्पूर्णम् ॥” उक्त पुस्तकालयकी * तार्किक सिद्धांतोंमें विशेष महत्त्वका मतभेद भी सूचीमें भी यह नयचक्र नामसे ही दर्ज है। नहीं है । तब नयसंबंधी एक श्वेतांबर तर्कग्र- बासोदाके भंडारकी सुचीमें भी-जो बम्बईके न्थका उल्लेख एक दिगम्बराचार्य द्वारा किया दिगम्बर जैनमन्दिरके सरस्वतीभण्डारमें मौजूद जाना हमें तो असंभव नहीं मालूम होता। है-इसे नयचक्र संस्कृत गद्यके नामसे दर्ज अनेक श्वेतांबर ग्रन्थकर्ताओंने भी इसी तरह किया है । पं० शिवजीलालकृत दर्शनसारदिगंबर ग्रन्थकारोंकी प्रशंसा की है और उनके वचनिकामें देवसेनके संस्कृत नयचक्रका जो ग्रन्थोंके हवाले दिये हैं। . उल्लेख है, वह भी जान पड़ता है, इसी आलायह भी संभव है कि देवसेनके अतिरिक्त पपद्धतिको लक्ष्य करके किया गया है । यद्यपि .. अन्य किसी दिगम्बराचार्यका भी कोई नयचक्र आलापपद्धतिमें नयचक्रका ही गद्यरूप सारांश हो और विद्यानन्दस्वामीने उसका उल्लेख किया है और वह नयचक्रके ऊपर ही की गई है, इस हो । माइल्लधवलके बृहत् नयचक्रके अंतकी लिए कुछ लोगों द्वारा दिया गया उसका यह एक गाथा-जो केवल बम्बईवाली प्रतिमें है, 'नयचक्र' नाम एक सीमातक क्षम्य भी हो मोरेनाकी प्रतिमें नहीं है-यदि ठीक हो तो सकता है। परन्तु वास्तवमें इसका नाम · आलाउससे इस बातकी पुष्टि होती है । वह गाथा पपद्धति' ही है-नयचक्र नहीं। इस प्रकार है: __आलापपद्धतिके प्रारंभमें ही लिखा हैदुसमीरणेण पोयं पेरियसंतं जहा ति (चि) रं न। “आलापपद्धतिर्वचनरचनानुक्रमेण नयचक्रस्योसिरिदेवसेन मुणिणा तह णयचक्कं पुणो रइयं ॥ परि उच्यते ।" इससे मालूम होता है कि आलाप. इसका अभिप्राय यह है कि दुःषमकालरूपी पद्धति नयचक्रपर ही प्रश्नोत्तररूप संस्कृतमें आँधीसे पोत (जहाज ) के समान जो नयचक्र लिखी गई है । आलाप अर्थात् बोलचालकी चिरकालसे नष्ट हो गया था उसे देवसेन मुनिने पद्धतिपर अथवा वचनरचनाके ढंगपर यह फिरसे रचा । इससे मालूम होता है कि देवसेनके 'सुखबोधार्थ' या सरलतासे समझमें आनेके नयचक्रसे पहले भी कोई नयचक्र था जो नष्ट हो लिए बनाई गई है । इसकी प्रत्येक प्रतिमें इसे गया था और बहुत संभव है कि देवसेनने यह 'देवसेनकृता' लिखा भी मिलता है, इससे उसीका संक्षिप्त उद्धार किया हो। यह निश्चय हो जाता है कि यह नयचक्रके उपलब्ध ग्रंथों में नयचक नामके तीन ग्रन्थ कर्ता देवसेनकी ही रची हुई है-अन्य प्रसिद्ध हैं-१ आलापपद्धति, २ लघनयचक्र. और किसीकी नहीं। ३ बृहत् नयचक्र । इनमेंसे पहला ग्रन्थ आलाप- २ लघु नयचक्र । श्रीदेवसेनसूरिका वास्तपद्धति संस्कृतमें है और शेष दो प्राकृतमें। विक नयचक्र यही है । इसके साथ जो ‘लघु ' १ आलापपद्धति । इसके कर्ता भी देव- * सन् १८८४-८६ की रिपोर्ट के ५१९ वें नम्ब. सेन ही हैं । डा० भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टिट्यूट रका ग्रन्थ देखो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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